Tuesday, 30 September 2014

आंत उतरना Hernia




           प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार आंत उतरने की बीमारी एक बहुत ही गंभीर समस्या है। इस रोग के कारण रोगी व्यक्ति की पाचनशक्ति कमजोर हो जाती है तथा उसे कई प्रकार के पेट के रोग हो जाते हैं।

आंत उतरने के रोग होने के लक्षण:-

     जब किसी व्यक्ति की आंत अपने जगह से उतर जाती है तो उस व्यक्ति के अण्डकोष की सन्धि में गांठे जैसी सूजन पैदा हो जाती है जिसे यदि दबाकर देखा जाए तो उसमें से कों-कों शब्द की आवाज सुनाई देती हैं। आंत उतरने का रोग अण्डकोष के एक तरफ पेड़ू और जांघ के जोड़ में अथवा दोनों तरफ हो सकता है। जब कभी यह रोग व्यक्ति के अण्डकोषों के दोनों तरफ होता है तो उस रोग को हार्निया रोग के नाम से जाना जाता है। वैसे इस रोग की पहचान अण्डकोष का फूल जाना, पेड़ू में भारीपन महसूस होना, पेड़ू का स्थान फूल जाना आदि। जब कभी किसी व्यक्ति की आंत उतर जाती है तो रोगी व्यक्ति को पेड़ू के आस-पास दर्द होता है, बेचैनी सी होती है तथा कभी-कभी दर्द बहुत तेज होता है और इस रोग से पीड़ित व्यक्ति की मृत्यु भी हो सकती है। कभी-कभी तो रोगी को दर्द भी नहीं होता है तथा वह धीरे से अपनी आंत को दुबारा चढ़ा लेता है। आंत उतरने की बीमारी कभी-कभी धीरे-धीरे बढ़ती है तथा कभी अचानक रोगी को परेशान कर देती है।

आंत उतरने का कारण:-

          प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार यह रोग व्यक्ति को आन्त्रवृद्धि, पेड़ू में विकृत पदार्थ का अनावश्यक भार जाने के फलस्वरूप, तल-पेट की मांसपेशियों की कमजोरी हो जाने के कारण होता है। आंत में पेट के सारे पाचनतंत्र रहते हैं।

प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार देखा जाए तो आंत निम्नलिखित कारणों से  उतर जाती है-

1. कठिन व्यायाम करने के कारण आंत उतरने का रोग हो जाता है।

2. पेट में कब्ज होने पर मल का दबाव पड़ने के कारण आंत उतरने का रोग हो जाता है।

3. भोजन सम्बन्धी गड़बड़ियों तथा शराब पीने के कारण भी आंत अपनी जगह से उतर जाती है।

4. मल-मूत्र के वेग को रोकने के कारण भी आंत अपनी जगह से उतर जाती है।

5. खांसी, छींक, जोर की हंसी, कूदने-फांदने तथा मलत्याग के समय जोर लगाने के कारण आंत अपनी जगह से उतर जाती है।

6. पेट में वायु का प्रकोप अधिक होने से आंत अपनी जगह से उतर जाती है।

7. अधिक पैदल चलने से भी आंत अपनी जगह से उतर जाती है।

8. भारी बोझ उठाने के कारण भी आंत अपनी जगह से उतर जाती है।

9. शरीर को अपने हिसाब से अधिक टेढ़ा-मेढ़ा करने के कारण आंत अपनी जगह से उतर जाती है।

आंत उतरने से पीड़ित व्यक्ति का प्राकृतिक चिकित्सा से उपचार:-

1. प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार जब किसी व्यक्ति की आंत उतर जाती है तो रोगी व्यक्ति को तुरन्त ही शीर्षासन कराना चाहिए या उसे पेट के बल लिटाना चाहिए। इसके बाद उसके नितम्बों को थोड़ा ऊंचा उठाकर उस भाग को उंगुलियों से सहलाना और दबाना चाहिए। जहां पर रोगी को दर्द हो रहा हो उस भाग पर दबाव हल्का तथा सावधानी से देना चाहिए। इस प्रकार की क्रिया करने से रोगी व्यक्ति की आंत अपने स्थान पर आ जाती है। इस प्रकार से रोगी का उपचार करने के बाद रोगी को स्पाइनल बाथ देना चाहिए, जिसके फलस्वरूप रोगी व्यक्ति की पेट की मांसपेशियों की शक्ति बढ़ जाती है तथा अण्डकोष संकुचित हो जाते हैं।

2. रोगी की आंत को सही स्थिति में लाने के लिए उसके शुक्र-ग्रंथियों पर बर्फ के टुकड़े रखने चाहिए जिसके फलस्वरूप उतरी हुई आंत अपने स्थान पर आ जाती है।

3. यदि किसी समय आंत को अपने स्थान पर लाने की क्रिया से आंत अपने स्थान पर नहीं आती है तो रोगी को उसी समय उपवास रखना चाहिए। यदि रोगी के पेट में कब्ज हो रही हो तो एनिमा क्रिया के द्वारा थोड़ा पानी उसकी बड़ी आंत में चढ़ाकर, उसमें स्थित मल को बाहर निकालना चाहिए इसके फलस्वरूप आंत अपने मूल स्थान पर वापस चली जाती है।

4. प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार इस रोग का उपचार करने के लिए हार्निया की पट्टी का प्रयोग करना चाहिए। इस पट्टी को सुबह के समय से लेकर रात को सोने के समय तक रोगी के पेट पर लगानी चाहिए। यह पट्टी तलपेट के ऊपर के भाग को नीचे की ओर दबाव डालकर रोके रखती है जिसके फलस्वरूप रोगी को बहुत अधिक लाभ मिलता है। इस प्रकार से रोगी का उपचार करने से उसकी मांसपेशियां सख्त हो जाती हैं और रोग जल्दी ही ठीक हो जाता है। ठीक रूप से लाभ के लिए रूग्णस्थल (रोग वाले भाग) पर प्रतिदिन सुबह और शाम को चित्त लेटकर नियमपूर्वक मालिश करनी चाहिए। मालिश का समय 5 मिनट से आरम्भ करके धीरे-धीरे बढ़ाकर 10 मिनट तक ले जाना चाहिए। रोगी के शरीर पर मालिश के बाद उस स्थान पर तथा पेड़ू पर मिट्टी की गीली पट्टी का प्रयोग लगभग आधे घण्टे तक करना चाहिए। जिसके फलस्वरूप यह रोग ठीक हो जाता है।

5. प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार रोगी व्यक्ति के पेट पर मालिश और मिट्टी लगाने तथा रोगग्रस्त भाग पर भाप देने से बहुत अधिक लाभ मिलता है।

6. इस रोग का इलाज करने के लिए पोस्ता के डोण्डों को पुरवे में पानी के साथ पकाएं तथा जब पानी उबलने लगे तो उसी से रोगी के पेट पर भाप देनी चाहिए और जब पानी थोड़ा ठंडा हो जाए तो उससे पेट को धोना चाहिए। जिसके फलस्वरूप यह रोग ठीक हो जाता है।

निम्नलिखित व्यायामों के द्वारा आंत उतरने के रोग को ठीक किया जा सकता है-

1. यदि आंत उतर गई हो तो उसका उपचार करने के लिए सबसे पहले  रोगी के पैरों को किसी से पकड़वा लें या फिर पट्टी से चौकी के साथ बांध दें और हाथ कमर पर रखें। फिर इसके बाद रोगी के सिर और कन्धों को चौकी से 6 इंच ऊपर उठाकर शरीर को पहले बायीं ओर और फिर पहले वाली ही स्थिति में लाएं और शरीर को उठाकर दाहिनी ओर मोड़े। फिर हाथों को सिर के ऊपर ले जाएं और शरीर को उठाने का प्रयत्न करें। यह कसरत कुछ कठोर है इसलिए इस बात का ध्यान रखें कि अधिक जोर न पड़े। सबसे पहले इतनी ही कोशिश करें जिससे पेशियों पर तनाव आए, फिर धीरे-धीरे बढ़ाकर इसे पूरा करें। इसके फलस्वरूप यह रोग ठीक हो जाता है।

2. प्राकृतिक चिकित्सा से इस रोग का उपचार करने के लिए सबसे पहले रोगी व्यक्ति को सीधे लिटाकर उसके घुटनों को मोड़ते हुए पेट से सटाएं और तब तक पूरी लम्बाई में उन्हें फैलाएं जब तक उसकी गति पूरी न हो जाए और चौकी से सट न जाए। इस प्रकार से रोगी का इलाज करने से रोगी का रोग ठीक हो जाता है।

3. प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार रोगी व्यक्ति का इलाज करने के लिए रोगी के दोनों हाथों को फैलाकर चौकी के किनारों को पकड़ाएं और उसके पैरों को जहां तक फैला सकें उतना फैलाएं। इसके बाद रोगी के सिर को ऊपर की ओर फैलाएं। इससे रोगी का यह रोग ठीक हो जाता है।

4. रोगी व्यक्ति का इलाज करने के लिए रोगी व्यक्ति को हाथों से चौकी को पकड़वाना चाहिए। फिर इसके बाद रोगी अपने पैरों को ऊपर उठाते हुए सिर के ऊपर लाएं और चौकी की ओर वापस ले जाते हुए पैरों को लम्बे रूप में ऊपर की ओर ले जाएं। इसके बाद अपने पैरों को पहले बायीं ओर और फिर दाहिनी ओर जहां तक नीचे ले जा सकें ले जाएं। इस क्रिया को करने में ध्यान इस बात पर अधिक देना चाहिए कि जिस पार्श्व से पैर मुड़ेंगे उस भाग पर अधिक जोर न पड़े। यदि रोगी की आन्त्रवृद्धि दाहिनी तरफ है तो उस ओर के पैरों को मोड़ने की क्रिया बायीं ओर से अधिक बार होनी चाहिए। इस प्रकार से रोगी का उपचार करने से रोगी की आंत अपनी जगह पर आ जाती है।

5. कई प्रकार के आसनों को करने से भी आंत अपनी जगह पर वापस आ जाती है जो इस प्रकार हैं- अर्द्धसर्वांगासन, पश्चिमोत्तानासन, भुजंगासन, सर्वांगासन, शीर्षासन और शलभासन आदि।

6. आंत को अपनी जगह पर वापस लाने के लिए सबसे पहले रोगी को पहले दिन उपवास रखना चाहिए। इसके बाद रोग को ठीक करने के लिए केवल फल, सब्जियां, मट्ठा तथा कभी-कभी दूध पर ही रहना चाहिए। यदि रोगी को कब्ज हो तो सबसे पहले उसे कब्ज का इलाज कराना चाहिए। फिर सप्ताह में 1 दिन नियमपूर्वक उपवास रखकर एनिमा लेना चाहिए। इसके बाद सुबह के समय में कम से कम 1 बार ठंडे जल का एनिमा लेना चाहिए और रोगी व्यक्ति को सुबह के समय में पहले गर्म जल से स्नान करना चाहिए तथा इसके बाद फिर ठंडे जल से। फिर सप्ताह में एक बार पूरे शरीर पर वाष्पस्नान भी लेना चाहिए। इस रोग से पीड़ित रोगी को तख्त पर सोना चाहिए तथा सोते समय सिर के नीचे तकिया रखना चाहिए। इस रोग से पीड़ित रोगी को अपनी कमर पर गीली पट्टी बांधनी चाहिए। इससे रोगी व्यक्ति को बहुत अधिक लाभ मिलता है।

7. इस रोग से पीड़ित रोगी को गहरी नीली बोतल के सूर्यतप्त जल को लगभग 50 मिलीलीटर की मात्रा में रोजाना लगभग 6 बार लेने से बहुत अधिक लाभ मिलता है।

मांस-पेशियों में खिंचाव Strain in the muscles



         कोई व्यक्ति कितना भी स्वस्थ क्यों न हो उसकी मांसपेशियों में कभी न कभी खिंचाव जरूर आ जाता है।
मांसपेशियों में खिंचाव आने पर प्राकृतिक चिकित्सा से उपचार-
•मांसपेशियों में खिंचाव आने पर रोगी व्यक्ति को पूरी तरह से आराम करना चाहिए।
•रोगी को अपनी मांसपेशियों पर हर 2 घण्टे के अन्तराल पर आधे घण्टे के लिए बर्फ से मालिश करनी चाहिए।
•मांसपेशियों में खिंचाव से पीड़ित रोगी को गर्म तथा ठंडा स्नान करना चाहिए।
•मांसपेशियों में खिंचाव से पीड़ित रोगी को विटामिन `सी´ की मात्रा वाली चीजों का भोजन में अधिक सेवन करना चाहिए।
•मांसपेशियों में खिंचाव आने पर तेल से शरीर की मालिश करनी चाहिए जिसके फलस्वरूप दर्द जल्दी ही ठीक हो जाता है।

मूत्राशय की पथरी Bladder stone



          इस रोग से पीड़ित रोगी के मूत्राशय में पथरी हो जाती है जिसके कारण से रोगी व्यक्ति को बहुत अधिक परेशानी होती है।

मूत्राशय की पथरी के लक्षण-

•इस रोग से पीड़ित रोगी दर्द के कारण चीखने-चिल्लाने लगता है।
•मूत्राशय की पथरी से पीड़ित रोगी अपने लिंग और नाभि को हाथ से दबाए रखता है तथा पेशाब करने के समय में खांसने से वायु के साथ उसका मल भी निकल जाता है। रोगी का पेशाब बूंद-बूंद करके गिरता रहता है।
•रोगी व्यक्ति के पेड़ू में अत्यंत जलन तथा दर्द होता है और उसमें सुई गड़ने जैसी पीड़ा होती है।
•रोगी व्यक्ति के हृदय तथा गुर्दे में भी दर्द होता रहता है।
मूत्राशय की पथरी रोग होने के अनेक कारण हैं-

          मनुष्य के शरीर में रक्त का दूषित द्रव्य गुर्दों के द्वारा छनकर पेशाब के रूप में मूत्राशय में जमा होता रहता है जहां वह मूत्र की नलिकाओं के द्वारा शरीर से बाहर हो जाता है। जब शरीर या मूत्रयंत्रों में किसी प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाने के कारण उनकी कार्य प्रणाली में कोई गड़बड़ी हो जाती है तो मूत्राशय के अन्दर आया हुआ दूषित द्रव्य सूखकर पत्थर की तरह कठोर हो जाता है जिसे मूत्राशय की पथरी का रोग कहते हैं।

          जो पुरुष संभोग क्रिया के समय में अधिक आनन्द प्राप्त करने के लिए स्थानाच्युत या निकलते हुए वीर्य को रोक लेते हैं उन व्यक्तियों का वीर्य रास्ते में ही अटक कर रह जाता है और बाहर नहीं निकल पाता है। जब अटका हुए वीर्य वायु लिंग तथा फोतों के बीच में अर्थात मूत्राशय के मुंह पर आकर सूख जाता है तो वह वीर्य की पथरी कहलाता है।

मूत्राशय की पथरी रोग का प्राकृतिक चिकित्सा से उपचार-

•मूत्राशय की पथरी रोग को ठीक करने के लिए सबसे पहले रोगी व्यक्ति को अपने गुर्दे का उपचार करना चाहिए ताकि गुर्दे का कार्य मजबूत हो सके और मूत्राशय के कार्य में सुधार हो सके।
•रोगी व्यक्ति को उचित भोजन करना चाहिए तथा शरीर की आंतरिक सफाई करनी चाहिए ताकि गुर्दे तथा मूत्राशय पर दबाव न पड़े और उनका कार्य ठीक तरीके से हो सके। ऐसा करने से पथरी का बनना रुक जाता है तथा इसके साथ ही पेट में दर्द या कई प्रकार के अन्य रोग भी नहीं होते हैं तथा शरीर के स्वास्थ्य में भी सुधार हो जाता है।
•रोगी व्यक्ति को 2-4 दिनों तक पानी में नींबू या संतरे का रस मिलाकर पीना चाहिए और उसके बाद 2-3 दिनों तक केवल रसदार खट्टे-मीठे फलों का सेवन करना चाहिए। रोगी व्यक्ति को एनिमा क्रिया करके पेट की सफाई करनी चाहिए। इस प्रकार से उपचार करने से रोगी के गुर्दों के कार्य में सुधार हो जाता है जिसके फलस्वरूप पथरी का बनना बंद हो जाता है।
•मूत्राशय की पथरी रोग से पीड़ित रोगी को सुबह के समय में पानी में 1 नीबू का रस मिलाकर पीना चाहिए तथा इसके बाद नाश्ते में 250 मिलीलीटर दूध पीना चाहिए। फिर इसके बाद एक गिलास पानी में एक नींबू का रस मिलाकर दोपहर के समय में पीना चाहिए। रोगी व्यक्ति को दही और भाजी, सलाद तथा लाल चिउड़ा का फल खाना चाहिए तथा शाम के समय में फलों का रस पीना चाहिए।
•रोगी व्यक्ति को अपनी पाचनक्रिया को ठीक करने के लिए सुबह तथा शाम को टहलना चाहिए तथा हल्का व्यायाम भी नियमित रूप से करना चाहिए। इसके अलावा रोगी को 14 दिनों के बीच में एक बार उपवास रखना चाहिए। इससे रोगी का रोग ठीक हो जाता है।
•पथरी के रोग से पीड़ित रोगी को एक दिन में कम से कम 5-6 गिलास शुद्ध ताजा जल या फल का रस पीना चाहिए।
•पथरी के रोग को ठीक करने के लिए नारियल, ताड़ और खजूर का ताजा मीठा रस, फलों और शाक-सब्जियों का रस, दूध, मखनियां, दही तथा मठा पीना लाभदायक होता है।
•मूत्राशय की पथरी को ठीक करने के लिए और भी कई प्रकार के फल तथा औषधियां हैं जिनका सेवन करने से यह रोग जल्दी ही ठीक हो जाता है जो इस प्रकार हैं- तरबूज, खरबूज, खीरा, ककड़ी, मक्खन, गूलर, पका केला, चूड़ा, चावल, गेहूं का दलिया, कुलथी का पानी, शहद, किशमिश, पिण्ड खजूर, अंजीर, छुहारा, नारियल की गिरी, मूंगफली तथा बादाम आदि।
•पथरी के रोग से पीड़ित रोगी को मांस, मछली, दाल, अण्डा, चीनी, नमक, पकवान, मिठाई, मिर्च-मसाले, आचार, चटनी, सिरका आदि का सेवन नहीं करना चाहिए।

Monday, 29 September 2014

स्वर यन्त्र में जलन Laryngitis


          इस रोग के कारण रोगी व्यक्ति को अपने स्वर यन्त्र में जलन होने लगती है जिसके कारण उसका गला खुश्क हो जाता है तथा उसे तर खांसी होने लगती है।

स्वर यन्त्र में जलन होने का कारण-

1. अधिक गाना गाने, चीखने-चिल्लाने तथा जोर-जोर से भाषण देने से रोगी के स्वर यन्त्र में जलन हो जाता है।

2. ठंड लगने तथा सीलनयुक्त स्थान पर रहने के कारण स्वर यन्त्र में जलन हो सकती है।

3. ठंडी चीजों को भोजन में अधिक प्रयोग करने के कारण भी यह रोग सकता है।

4. शरीर के अंदर कोई दूषित द्रव्य जमा हो जाता है तथा जब यह दूषित द्रव्य किसी तरह से हलक में पहुंच जाता है तो स्वर यन्त्र में जलन हो जाती है।

5. अधिक मिर्च-मसालेदार भोजन खाने के कारण या आवश्यकता से अधिक भोजन खाने के कारण भी यह रोग हो सकता है।

स्वर यन्त्र में जलन होने पर प्राकृतिक चिकित्सा से उपचार-

•स्वर यन्त्र में जलन होने पर उपचार करने के लिए सबसे पहले रोगी व्यक्ति को अपने पेड़ू पर गीली मिट्टी की पट्टी से लेप करना चाहिए तथा इसके बाद एनिमा क्रिया का प्रयोग करके अपने पेट को साफ करना चाहिए।
•स्वर यन्त्र में जलन से पीड़ित रोगी को सुबह तथा शाम को अपने गले के चारों तरफ गीले कपड़े या मिट्टी की गीली पट्टी का लेप करना चाहिए।
•स्वर यन्त्र में जलन से पीड़ित रोगी को अपने गले, छाती तथा कंधे पर गरम या ठंडा सेंक बारी-बारी से करना चाहिए तथा इसके दूसरे दिन उष्णपाद स्नान करना चाहिए।
•स्वर यन्त्र में जलन से पीड़ित रोगी को गरम पानी में हल्का नमक मिलाकर उस पानी से गरारा करना चाहिए और सुबह तथा शाम के समय में 1-1 गिलास नमक मिला हुआ गरम पानी पीना चाहिए।
•स्वर यन्त्र में जलन से पीड़ित रोगी को 1 सप्ताह तक चोकरयुक्त रोटी तथा उबली-सब्जी खानी चाहिए।
•फल और दूध का अधिक सेवन करने से स्वर यन्त्र में जलन का रोग ठीक हो जाता है।
•स्वर यन्त्र में जलन से पीड़ित रोगी को पानी में नींबू का रस मिलाकर दिन में कई बार पीते रहना चाहिए तथा इसके अलावा गहरी नीली बोतल का सूर्यतप्त जल कम से कम 25 मिलीलीटर दिन में 6 बार पीना चाहिए। इस प्रकार से प्राकृतिक चिकित्सा से उपचार करने से स्वर यन्त्र में जलन ठीक हो जाती है।

कंधे का दर्द Shoulder pain



परिचय-
          वैसे देखा जाए तो कंधों में आर्थराइटिस नहीं पाया जाता है। जब जोड़ों की सरंचना किसी कारण से प्रभावित होती है तो कंधे में दर्द होने लगता है। कंधे में दर्द होने के कारण रोगी व्यक्ति को चलने-फिरने में भी परेशानी होने लगती है।
          कंधे सुन्न पड़ जाने की बीमारी 50 से 75 वर्ष की उम्र के स्त्री-पुरुषों में अधिक पाई जाती है। दर्द के कारण कंधा निष्क्रिय पड़ जाता है।
कंधे में दर्द होने का लक्षण:-
          इस रोग के कारण रोगी व्यक्ति के कंधे में दर्द होता है तथा उसका कंधा सुन्न पड़ जाता है। रोगी को कंधे में अकड़न भी होने लगती है और जब दर्द तेज हो जाता है तो रोगी व्यक्ति को नींद भी नहीं आती है।

कंधे में दर्द होने का कारण:-

          कंधे के जोड़ तथा इसकी संरचनाओं का तन्त्रिका वितरण मुख्य रूप में पांचवी ग्रीवा-मूल के माध्यम से होता है जो ग्रीवा-कशेरुका से निकलती है। यह कंधे की जड़ तथा ऊपरी बांह के ऊपर फैली हुई त्रिकोणिका मांसपेशी के क्षेत्र में निहित होती है इसलिए अधिकतर इसमें दर्द महसूस होता रहता है।

कंधे में दर्द होने पर प्राकृतिक चिकित्सा से उपचार:-

•कंधे के दर्द को ठीक करने के लिए रोगी व्यक्ति को सबसे पहले अपने कंधे की मालिश करानी चाहिए तथा गर्म व ठंडी सिंकाई करवानी चाहिए ताकि यदि कंधे के पास की रक्त कोशिकाओं में रक्त जम गया हो तो उस स्थान पर रक्त का संचारण हो सके। इसके फलस्वरूप कंधे का दर्द ठीक हो जाता है।
•रोगी के कंधे के दर्द से प्रभावित भाग को सूर्य की किरणों के पास करके सिंकाई करनी चाहिए क्योंकि सूर्य की पराबैंगनी किरणों में दर्द को ठीक करने की शक्ति होती है। फिर रोगी व्यक्ति को कंधे पर ठंडी सिंकाई करनी चाहिए तथा इसके बाद उस पर मिट्टी की पट्टी का लेप करना चाहिए। इसके फलस्वरूप कंधे के दर्द का रोग ठीक हो जाता है।
•रोगी व्यक्ति को रात के समय में कम से कम 1 घण्टे तक ठंडा लेप कंधे पर करना चाहिए। इसके फलस्वरूप कंधे का दर्द तथा अकड़न ठीक हो जाती है।
•इस रोग को ठीक करने के लिए रोगी व्यक्ति को सुबह के समय में व्यायाम करने से लाभ होता है।
•इस रोग से पीड़ित रोगी को मांस, मछली तथा अन्य मांसाहारी चीजों का सेवन नहीं करना चाहिए।
जानकारी-

          इस प्रकार से प्राकृतिक चिकित्सा से उपचार करने से रोगी व्यक्ति का कंधे का दर्द ठीक हो जाता है।

थाइराइड रोग Thyroid Disease



          जब यह रोग किसी व्यक्ति को हो जाता है तो उसकी थाइराइड ग्रन्थि में वृद्धि हो जाती है जिसके कारण शरीर के कार्यकलापों में बहुत अधिक परिवर्तन आ जाता है। यह रोग स्त्रियों में अधिक होता है। यह रजोनिवृति के समय, शारीरिक तनाव, गर्भावस्था के समय, यौवन प्रवेश के समय बहुत अधिक प्रभाव डालता है।
थाइराइड रोग निम्न प्रकार का होता है-
थाइराइड का बढ़ना-
           इस रोग के होने पर थाइराइड ग्रन्थि द्वारा ज्यादा हारमोन्स स्राव होने लगता है।

थाइराइड के बढ़ने के लक्षण:-

          इस रोग से पीड़ित रोगी का वजन कम होने लगता है, शरीर में अधिक कमजोरी होने लगती है, गर्मी सहन नहीं होती है, शरीर से अधिक पसीना आने लगता है, अंगुलियों में अधिक कंपकपी होने लगती है तथा घबराहट होने लगती है। इस रोग के कारण रोगी का हृदय बढ़ जाता है, रोगी व्यक्ति को पेशाब बार-बार आने लगता है, याददाश्त कमजोर होने लगती है, भूख नहीं लगती है तथा उच्च रक्तचाप का रोग हो जाता है। कई बार तो इस रोग के कारण रोगी के बाल भी झड़ने लगते हैं। इस रोग के हो जाने पर स्त्रियों के मासिकधर्म में गड़बड़ी होने लगती है।

थाइराइड का सिकुड़ना-

          इस रोग के हो जाने पर थाइराइड ग्रन्थि के द्वारा कम हारमोन बनने लगते हैं।

थाइराइड के सिकुड़ने का लक्षण:-

          इस रोग के होने पर रोगी व्यक्ति का वजन बढ़ने लगता है तथा उसे सर्दी लगने लगती है। रोगी के पेट में कब्ज बनने लगती है, रोगी के बाल रुखे-सूखे हो जाते हैं। इसके अलावा रोगी की कमर में दर्द, नब्ज की गति धीमी हो जाना, जोड़ों में अकड़न तथा चेहरे पर सूजन हो जाना आदि लक्षण प्रकट हो जाते हैं।

घेँघा (गलगंड)-

          इस रोग के कारण थाइराइड ग्रन्थि में सूजन आ जाती है तथा यह सूजन गले पर हो जाती है। इस रोग से पीड़ित रोगी के गले पर कभी-कभी यह सूजन नज़र नहीं आती है लेकिन त्वचा पर यह महसूस की जा सकती है।

घेघा (गलगंड) रोग होने के लक्षण:-

        इस रोग से पीड़ित रोगी की एकाग्रता शक्ति (सोचने की शक्ति) कमजोर हो जाती है। रोगी को आलस्य आने लगता है तथा उसे उदासी भी हो जाती है। रोगी व्यक्ति चिड़चिड़ा हो जाता है, मानसिक संतुलन खो जाता है और वजन भी कम होने लगता है। किसी भी कार्य को करने में रोगी का मन नहीं करता है। धीरे-धीरे शरीर के भीतरी भागों में रुकावट आने लगती है।

थाइराइड रोग होने का कारण:-

•यह रोग अधिकतर शरीर में आयोडीन की कमी के कारण होता है।
•यह रोग उन व्यक्तियों को भी हो जाता है जो अधिकतर पका हुआ भोजन करते हैं तथा प्राकृतिक भोजन बिल्कुल नहीं करते हैं। प्राकृतिक भोजन करने से शरीर में आवश्यकतानुसार आयोडीन मिल जाता है लेकिन पका हुआ खाने में आयोडीन नष्ट हो जाता है।
•मानसिक, भावनात्मक तनाव, गलत तरीके से खान-पान तथा दूषित भोजन का सेवन करने के कारण भी यह रोग हो सकता है।
थाइराइड रोगों का प्राकृतिक चिकित्सा से उपचार:-

•थाइराइड रोगों का उपचार करने के लिए रोगी व्यक्ति को कुछ दिनों तक फलों का रस (नारियल पानी, पत्तागोभी, अनन्नास, संतरा, सेब, गाजर, चुकन्दर, तथा अंगूर का रस) पीना चाहिए तथा इसके बाद 3 दिन तक फल तथा तिल को दूध में डालकर पीना चाहिए। इसके बाद रोगी को सामान्य भोजन करना चाहिए जिसमें हरी सब्जियां, फल तथा सलाद और अंकुरित दाल अधिक मात्रा में हो। इस प्रकार से कुछ दिनों तक उपचार करने से यह रोग ठीक हो जाता है।
•इस रोग से पीड़ित रोगी को कम से कम 1 वर्ष तक फल, सलाद, तथा अंकुरित भोजन का सेवन करना चाहिए।
•सिंघाड़ा, मखाना तथा कमलगट्टे का सेवन करना भी लाभदायक होता है।
•घेंघा रोग को ठीक करने के लिए रोगी को 2 दिन के लिए उपवास रखना चाहिए और उपवास के समय में केवल फलों का रस पीना चाहिए। रोगी को एनिमा क्रिया करके पेट को साफ करना चाहिए। इसके बाद प्रतिदिन उदरस्नान तथा मेहनस्नान करना चाहिए।
•थाइराइड रोगों से पीड़ित रोगी को तली-भुनी चीजें, मैदा, चीनी, चाय, कॉफी, शराब, डिब्बाबंद खाद्य पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए।
•1 कप पालक के रस में 1 बड़ा चम्मच शहद मिलाकर फिर चुटकी भर जीरे का चूर्ण मिलाकर प्रतिदिन रात के समय में सोने से पहले सेवन करने से थाइराइड रोग ठीक हो जाता है।
•कंठ के पास गांठों पर भापस्नान देकर दिन में 3 बार मिट्टी की पट्टी बांधनी चाहिए और रात के समय में गांठों पर हरे रंग की बोतल का सूर्यतप्त तेल लगाना चाहिए।
•इस रोग को ठीक करने के लिए सबसे पहले रोगी व्यक्ति को उन चीजों का भोजन में अधिक प्रयोग करना चाहिए जिसमें आयोडीन की अधिक मात्रा हो।
•1 गिलास पानी में 2 चम्मच साबुत धनिये को रात के समय में भिगोकर रख दें तथा सुबह के समय में इसे मसलकर उबाल लें। फिर जब पानी चौथाई भाग रह जाये तो खाली पेट इसे पी लें तथा गर्म पानी में नमक डालकर गरारे करें। इस प्रकार से प्रतिदिन उपचार करने से थाइराइड रोग ठीक हो जाता है।
•थाइराइड रोगों को ठीक करने के लिए रोगी व्यक्ति को अपने पेट पर मिट्टी की गीली पट्टी करनी चाहिए तथा इसके बाद एनिमा क्रिया करके अपने पेट को साफ करना चाहिए और इसके बाद कटिस्नान करना चाहिए। इसके फलस्वरूप यह रोग कुछ ही दिनों में ठीक हो जाता है।
•इस रोग से पीड़ित रोगी को अधिक से अधिक आराम करना चाहिए ताकि थकावट न आ सके और रोगी व्यक्ति को पूरी नींद लेनी चाहिए। मानसिक, शारीरिक परेशानी तथा भावनात्मक तनाव यदि रोगी व्यक्ति को है तो उसे दूर करना चाहिए और फिर प्राकृतिक चिकित्सा से अपना उपचार कराना चाहिए।
•अंत:स्रावी ग्रन्थियों को ठीक करने के लिए कई प्रकार की यौगिक क्रियाएं तथा योगासन हैं। जिनको प्रतिदिन करने से यह रोग ठीक हो जाता है। ये यौगिक क्रियाएं तथा योगासन इस प्रकार हैं- योगमुद्रासन, प्राणायाम, योगनिद्रा, शवासन, पवनमुक्तासन, सुप्तवज्रासन, मत्स्यासन आदि।

टॉन्सिल वृद्धि



          इस रोग के कारण रोगी के गले की तुण्डिका बढ़ जाती है। वैसे यह कोई रोग नहीं है बल्कि यह कई प्रकार के रोगों के होने का लक्षण है। इस रोग को टॉन्सिल वृद्धि कहते हैं।
          टॉन्सिल एक प्रकार की ग्रन्थि है जो शरीर के निस्सरण संस्थान के बहुमूल्य अंग है। प्रकृति के अनुसार टॉन्सिल की रचना इस प्रकार की है जो शरीर को मल रहित बनाकर शुद्ध करता है। जब टॉन्सिल वृद्धि हो जाए उस समय टॉन्सिल को काटकर फेंक देना अच्छा नहीं होता बल्कि इसका प्राकृतिक चिकित्सा से उपचार कराना लाभदायक होता है।
टॉन्सिल वृद्धि होने का कारण:-

•टॉन्सिलों के बढ़ने और फूलने का मुख्य कारण शरीर में विषैले पदार्थों का अधिक मात्रा में जमा हो जाना है। इसलिए इस रोग का उपचार करने के लिए सबसे पहले पेट को साफ करना आवश्यक है।
•जब शरीर में दूषित द्रव्य जमा हो जाते हैं तो वह टॉन्सिल-वृद्धि, घेंघा, फोड़े-फुन्सी आदि कई रूपों में शरीर से बाहर निकलने की कोशिश करते हैं जिससे रोगी व्यक्ति को बहुत अधिक परेशानी होती है।
•टॉन्सिल वृद्धि के और भी अन्य कारण हो सकते हैं जैसे- पानी में भीगना, अत्यधिक परिश्रम करना, बंद हवा में सांस लेना, समय-समय पर ठंड लग जाना तथा स्वरयन्त्र को सांस लेने के लिए अधिक काम में लेना आदि।
टॉन्सिल वृद्धि का प्राकृतिक चिकित्सा से उपचार:-

•जब तक टॉन्सिल का रोग कम न हो जाए तब तक 2-2 घण्टे के बाद केवल फलों का रस या शाक तथा सब्जियों का रस पीना चाहिए तथा दिन में 3-4 बार फल भी खाने चाहिए और दूध पीना चाहिए।
•इस रोग से पीड़ित रोगी को सुबह के समय में फल खाने चाहिए तथा दूध पीना चाहिए। रोगी को दोपहर को चोकर वाले आटे की रोटी, उबली सब्जी, मीठा दही या मट्ठा और सलाद तथा कच्ची साग-सब्जियों का सेवन करना चाहिए इसके बाद शाम को दूध पीना चाहिए तथा फलों का सेवन करना चाहिए।
•जब तक यह रोग ठीक न हो जाए तब तक प्रतिदिन कम से कम 3-4 लीटर पानी पीना चाहिए।
•इस रोग का उपचार करने के लिए जब तक फलों का रस पी रहे हो तब तक सुबह के समय में शौच करने के बाद अपने पेड़ू पर आधा घंटे तक गीली मिट्टी की पट्टी रखने के बाद डेढ़ लीटर गुनगुने पानी से एनिमा क्रिया करनी चाहिए ताकि पेट साफ हो जाए। एनिमा क्रिया में जिस पानी का उपयोग कर रहे हो उस पानी में नींबू का रस मिलाना बहुत ही लाभदायक होता है।
•इस रोग का उपचार कराते समय रोगी का वजन घट सकता है क्योंकि सामान्य भोजन न मिल पाने से वजन घट जाता है। लेकिन रोगी व्यक्ति को घबराना नहीं चाहिए क्योंकि जब रोग ठीक हो जाए तब रोगी व्यक्ति को उपयुक्त भोजन मिलने के कारण से उसका वजन सामान्य हो जाता है। रोगी व्यक्ति को प्रतिदिन शाम के समय में भोजन करने के बाद और सोने से पहले अपनी कमर पर गीली पट्टी लगानी चाहिए। इस पट्टी को रातभर बंधे रहने देना चाहिए। रोगी व्यक्ति को सप्ताह में 1 दिन हाट एप्सम साल्टबाथ लेना भी आवश्यक है। जिस दिन इस पट्टी का प्रयोग कर रहे हो उस दिन कमर पर गीली पट्टी नहीं लगानी चाहिए। इस प्रकार से उपचार करने से टॉन्सिल वृद्धि रोग जल्दी ही ठीक हो जाता है।
•रोगी को दिन में कम से कम 2 बार टॉन्सिल, गला, हलक तथा गर्दन पर लगभग 10 मिनट के लिए भाप देनी चाहिए। उसके बाद गर्म पानी में नींबू का रस निचोड़कर उस पानी से कुल्ला करना चाहिए और इसके बाद लगभग 2 घण्टे तक अपने गले के चारों तरफ टॉन्सिल को ढकते हुए गीले कपड़े की लपेट या मिट्टी की पट्टी लगानी चाहिए। यह पट्टी रात को सोने के समय लगानी चाहिए तथा पूरी रात पट्टी को बांधे रखना चाहिए।
•कागजी नींबू के रस तथा शहद को मिलाकर अंगुली से मुंह के अन्दर की तरफ टॉन्सिलों पर सुबह और शाम को लगाना चाहिए जिससे बहुत अधिक लाभ मिलता है। इस प्रकार से मालिश करते समय यदि रक्त या मवाद निकले तो निकलने देना चाहिए डरना नहीं चाहिए। इस प्रकार से उपचार करने के बाद ताजे मक्खन को गर्दन पर लगभग 20 मिनट तक ऊपर की ओर मालिश भी करनी चाहिए। अन्दर की ओर मालिश करने के लिए कागजी नींबू के रस और शहद के स्थान पर साधारण नमक और गोबर की राख का भी उपयोग किया जा सकता है। लेकिन इस रोग में नींबू का रस और शहद का उपयोग बहुत ज्यादा लाभकारी होता है।
•इस रोग से पीड़ित रोगी को प्रतिदिन सुबह के समय में अपने मुंह को खोलकर सूरज के सामने बैठना चाहिए और नीले शीशे के टुकड़े को अपने चेहरे के सामने इस प्रकार रखना चाहिए कि सूर्य की रोशनी इस शीशे से निकलकर टॉन्सिलों पर पड़े। इस प्रकार से उपचार कम से कम 7 मिनट तक करना चाहिए। इसके साथ-साथ रोगी को प्रतिदिन नीली बोतल के सूर्यतप्त जल को लगभग 25 मिलीलीटर लेकर की मात्रा में लेकर कम से कम 6 बार सेवन करना चाहिए तथा इसके साथ-साथ पीले रंग की बोतल के सूर्यतप्त जल को सेवन भी करना चाहिए।
•इस रोग से पीड़ित रोगी को सादा और शुद्ध भोजन करना चाहिए तथा भोजन में दही, मट्ठा, ताजी साग-सब्जियों का प्रयोग करना चाहिए।  रोगी को मिर्च-मसाला, नमक, तेल, चीनी, चाय, कॉफी, पॉलिश, मैदा, अचार आदि का अधिक प्रयोग नहीं करना चाहिए।
•टॉन्सिल वृद्धि से पीड़ित रोगी को कई प्रकार की दूसरी चीजों से परहेज करना चाहिए जो इस प्रकार हैं- नशीली चीजें, चावल, रबड़ी, गेहूं तथा तली-भुनी चीजें आदि।
•टॉन्सिल वृद्धि से पीड़ित को अधिक बोलने से बचना चाहिए।

Saturday, 27 September 2014

अंगुलहाड़ा Witlow



          यह रोग अधिक कष्टकारी हो जाता है। यह रोग अंगुली के अगले भाग में होता है। इस रोग में अंगुली में कुछ चुभने के बाद पहले हल्का दर्द उत्पन्न होता है और फिर वहां छोटा सा दाना उत्पन्न हो जाता है। इसके बाद अंगुली का दाना धीरे-धीरे बड़ा होने लगता है और उस दाने में पानी भर जाता है। इससे तेज दर्द उत्पन्न होता है और फिर दाने में भरा पानी पककर पीब बन जाता है। यह रोग उत्पन्न होने पर लोग दाने से पीब निकालने के लिए चीरा लगवाते हैं। इस तरह चीरा लगवाने पर कभी-कभी रोग दूर हो जाते हैं और कभी अंगुली के अगले हिस्से का एक इंच भाग काटना पड़ जाता है। यह रोग यदि किसी मधुमेह से पीड़ित रोगी को हो जाए तो यह भयंकर रोग बन जाता है।

जल चिकित्सा के द्वारा रोग का उपचार-

          अंगुलहाड़ा रोग में जल चिकित्सा के प्रयोग से रोग जल्द ठीक हो जाता है। इस रोग में रोगी को पहले शीतल जल की पट्टी का लगातार प्रयोग करना चाहिए या मिट्टी की पुल्टिश अंगुली पर लगाकर रखनी चाहिए। इससे रोग में जल्द लाभ मिलता है और दर्द आदि में भी आराम मिलता है। इसके अतिरिक्त रोग में उपचार के साथ सिरंज बाथ भी लेना चाहिए। इससे रोग में लाभ मिलता है।

भोजन और परहेज-

          इस रोग से पीड़ित रोगी को रवेदार आटे की रोटी बनाकर खानी चाहिए। ऊपर बताए गए जल चिकित्सा के द्वारा रोग का उपचार करने पर अंगुलहाड़ा के साथ मधुमेह रोगी का पेशाब का बार-बार आना भी दूर हो जाता है।

पीलिया या कामला



          यह रोग मुख्य रूप से दूषित भोजन करने और दूषित पानी पीने के कारण होता है। यह रोग अधिक तैलीय पदार्थ तथा बासी भोजन करने से होता है। इस रोग में रोगी के शरीर में खून की कमी होने लगती है। शरीर में खून की कमी के कारण रोगी का पूरा शरीर पीला हो जाता है। इस रोग में रोगी की आंखें पीली हो जाती हैं और उसके पेशाब का रंग भी पीला होता है। इस रोग में खून में दूषित द्रव मिलकर अनेक प्रकार के रोगों को उत्पन्न करते हैं। इससे जिगर में सूजन पैदा होती है और रोगी को भोजन करने की इच्छा नहीं होती है।
प्राकृतिक चिकित्सा द्वारा रोग का उपचार-
          पीलिया के रोगी को पहले रोग में ठंडे तौलिये का घर्षण स्नान करना चाहिए और रोगी को फलाहार लेना चाहिए साथ ही रोगी को पूर्ण आराम भी करना चाहिए। पीलिया के रोगी को प्रतिदिन 2 बार गुनगुने पानी का एनिमा लेना चाहिए और फिर ठंडे पानी का एनिमा लेना चाहिए।
          इसके अतिरिक्त रोगी को उष्ण लपेट (गर्म जल का लपेट) लेना चाहिए। पीलिया के रोग में रोगी को सिर दर्द हो तो सिर पर गर्म जल की पट्टी का लपेट करना चाहिए। यदि रोगी को खुजली आदि हो तो नीम के पानी से गर्म पानी स्पंज लेना चाहिए। इससे रोग में जल्द लाभ होता है। 

पुरानी अमीबा का रोग Chronic amoeba disease



          यह एक प्रकार का ऐसा रोग है जो बहुत अधिक व्यक्तियों को होता है। यह रोग अधिकतर गंदी आदतों तथा गंदगी के कारण होता है। जब यह रोग किसी व्यक्ति को हो जाता है तो उसे जल्दी ही इसका उपचार करना चाहिए नहीं तो यह रोग बढ़कर अमीबा रुग्णता तथा फेफड़ों में जख्म बना सकता है।

पुरानी अमीबा का रोग होने का कारण :-

           यह रोग अमीबा रुग्नता कोशिका में पाए जाने वाले एक ही सूक्ष्मजीव एंटमीबा हिस्टोलटिका के कारण होता है। ये सूक्ष्मजीव एंटमीबा दूषित पानी में होता है। जब मनुष्य इस पानी का प्रयोग पीने या भोजन करने के काम में लेता है तो ये कीटाणु उनके शरीर में चले जाते हैं और रोग उत्पन्न कर देते हैं। जब ये सूक्ष्म जीव शरीर में चले जाते हैं तो यह बड़ी आंत में पहुंचकर उसमें जख्म बना देते हैं जिसके कारण व्यक्ति को यह रोग हो जाता है।

पुरानी अमीबा का रोग होने के लक्षण :-

•जब यह रोग किसी व्यक्ति को हो जाता है तो उसे बदहजमी, जी मिचलाना, छाती में जलन, वायु-प्रकोप जैसी समस्याएं हो जाती हैं।
•इस रोग से पीड़ित रोगी को पतले दस्त भी होने लगते हैं जिसके कारण उसे बहुत अधिक परेशानी होने लगती है।
•रोगी व्यक्ति का शरीर दिन-प्रतिदिन कमजोर होने लगता है तथा उसका वजन भी कम होने लगता है।
•जब इस रोग का प्रकोप बहुत ज्यादा हो जाता है तो रोगी व्यक्ति के मल से खून तथा बलगम आने लगता है तथा उसे बुखार हो जाता है और उल्टियां होने लगती हैं।
पुरानी अमीबा रोग होने पर प्राकृतिक चिकित्सा से उपचार :-

•इस रोग का उपचार करने के लिए रोगी व्यक्ति को सबसे पहले 2-3 दिनों तक पानी में नींबू का रस मिलाकर पीना चाहिए तथा उपवास रखना चाहिए।
•उपवास रखने के साथ-साथ रोगी व्यक्ति को पानी में नीम की पत्तियां डालकर, उबालकर, इस पानी को गुनगुना करके एनिमा क्रिया करनी चाहिए ताकि उसका पेट साफ हो सके।
•इस रोग से पीड़ित रोगी को प्रतिदिन ठंडे पानी से कटिस्नान करना चाहिए।
•पुरानी अमीबा रोग से पीड़ित रोगी को प्रतिदिन कुछ दिनों तक दिन में कम से कम 2 बार अपने पेट पर कम से कम 20 से 25 मिनट तक मिट्टी की गीली पट्टी का लेप करना चाहिए तथा सप्ताह में कम से कम 1-2 बार गुर्दा लपेट क्रिया करनी चाहिए।
•इस रोग से पीड़ित रोगी को प्रतिदिन अपने पेट पर गीले कपड़े की पट्टी लपेटनी चाहिए।
•यदि रोगी व्यक्ति को अफारा या दर्द अधिक हो रहा हो तो इससे छुटकारा पाने के लिए गैस्ट्रो-हेपैटिक लपेट का प्रयोग करना चाहिए।
•इस रोग से पीड़ित रोगी को अपने पेट पर गर्म या ठंडी सिंकाई करनी चाहिए तथा कभी-कभी गर्म या ठंडे पानी से स्नान करना चाहिए।
जानकारी-

           इस प्रकार से प्राकृतिक चिकित्सा से पुरानी अमीबा रोग उपचार करने से यह रोग कुछ ही दिनों में ठीक हो जाता है।

पित्ती का उछलना Urticaria disorder



          शरीर में मौजूद तीन धातुओं में वात, कफ और पित्त होता है। जब शरीर में पित्त की मात्रा अधिक हो जाती है या किसी कारण से शरीर में पित्त का प्रकोप बढ़ जाता है तो उससे उत्पन्न होने वाले विकार को पित्ती का उछलना कहते हैं। पित्त से उत्पन्न विकार गर्मी के रूप में शरीर से बाहर निकलता है, जिससे शरीर पर कभी-कभी लाल रंग के चकत्ते या दाने उभर आते हैं। यह रोग लगभग 3 घंटे या 3 दिन तक रहने के बाद अपने आप समाप्त हो जाता है। परन्तु इस रोग के होने पर इसका उपचार कराना आवश्यक है क्योंकि इसका उपचार न कराने पर चकत्ते या दाने तो शांत हो जाते हैं, परन्तु शरीर के दूषित द्रव जिसकी गर्मी के कारण यह रोग उत्पन्न होता है, वे बाहर नहीं निकल पाते। अत: इस गर्मी को निकालने के लिए जल चिकित्सा का प्रयोग करना चाहिए।

प्राकृतिक चिकित्सा द्वारा रोग का उपचार-

          इस रोग में रोगी को पहले ठंडे पानी से अधिक समय तक पूर्णअभिसिंचन करना चाहिए। इसके बाद गीली मिट्टी की मालिश रोगी के शरीर पर करनी चाहिए। इस तरह इस क्रिया को 1 से 2 बार करने पर पित्ती अर्थात शरीर की गर्मी समाप्त हो जाती है और शरीर के अन्दर के दूषित द्रव बाहर निकल जाते हैं। इस रोग में सामान्य रूप से हल्का भोजन करना चाहिए और कई दिनों तक सिज बाथ लेना चाहिए।

Friday, 26 September 2014

जल में डूबना



           यदि कोई व्यक्ति पानी में डूब रहा हो तो सबसे पहले उस व्यक्ति को पानी से बाहर निकालकर उसके शरीर में भरा हुआ पानी बाहर निकालना चाहिए।

पानी में डूबने से बचाने के बाद रोगी व्यक्ति का प्राकृतिक चिकित्सा से उपचार-
         सबसे पहले पानी में डूबे व्यक्ति को पीठ के बल लिटा देना चाहिए। फिर इसके बाद रोगी व्यक्ति की छाती को जोर-जोर से दबाना चाहिए ताकि रोगी व्यक्ति के पेट से पानी बाहर निकल सके। फिर इसके बाद रोगी व्यक्ति की सांसों को जोड़ने का प्रयास करना चाहिए। फिर उसके शरीर में गरमाई लाने का प्रयत्न करना चाहिए। रोगी व्यक्ति के शरीर में गर्माहट लाने के लिए रोगी के पेट के ऊपरी भाग पर दोनों बगलों में, पैर के तलवों के ऊपर तथा उनके नीचे गर्म जल से भरी बोतलें या फिर गर्म बालू से भरी पोटलियां रखकर पूरे शरीर को कम्बल से ढकना चाहिए और इसके बाद जब रोगी की इच्छा हो तब उसे 2-3 चम्मच गर्म पानी पिलाना चाहिए और फिर बाद में रोगी व्यक्ति को गर्म दूध पिलाना चाहिए। इस प्रकार से रोगी व्यक्ति का प्राकृतिक चिकित्सा से इलाज करने से वह जल्द ही होश में आ जाता है और उसका शरीर सामान्य हो जाता है।

जिगर का फोड़ा Liver abscess




          जिगर विद्रधि (जिगर का फोड़ा) के रोग में पहले रोगी के जिगर में सिकुड़न पैदा होती है और फिर उसमें फोड़ा निकल आता है। जिगर में उत्पन्न होने वाला यह फोड़ा जब पक जाता है तो रोग सांघातिक हो जाता है। इस रोग से पीड़ित रोगी का ऑपरेशन करने पर अधिकतर रोगियों की मृत्यु हो जाती है। इस रोग के उत्पन्न होने का मुख्य कारण अधिक मात्रा में नशीले पदार्थ जैसे- शराब, सिगरेट, तम्बाकू आदि का सेवन करना है। नशीले पदार्थों का सेवन करने वाले व्यक्ति अधिकतर शराब के साथ भारी भोजन करना पसन्द करते हैं जैसे- शराब के साथ मांस, पकौडे़ तथा अधिक तली व चटपटी चीजें। इस तरह शराब के साथ प्रयोग किये जाने वाले खाद्य-पदार्थ शरीर के लिए विषकारक हो जाते हैं। इससे व्यक्ति को कब्ज हो जाता है, जिसमें सड़न पैदा होकर पेट में गैस बनने लगती है। यह गैस ऊपर उठकर जिगर में पहुंच जाती है और उसमें विकार पैदा करती है। इस दूषित गैस के कारण जिगर सिकुड़ जाता है और फिर धीरे-धीरे उसमें घाव बनने लगता है। जिगर में घाव होने से इससे निकलने वाला दूषित द्रव खून में मिलकर खून को गन्दा कर देता है, जिससे शरीर कमजोर और रोगग्रस्त हो जाता है।

जल चिकित्सा द्वारा रोग का उपचार-

          जिगर के फोड़े के रोग में रोगी को कब्ज बनने वाले पदार्थ, गरिष्ठ (भारी) भोजन, अधिक तेल व जलन पैदा करने वाले भोजन नहीं करना चाहिए। इस रोग में रोगी को शराब, सिगरेट आदि पदार्थों का त्याग कर देना चाहिए। इसके बाद रोगी को पहले कब्ज दूर करने वाला उपचार करना चाहिए। फिर विभिन्न क्रिया द्वारा रोग का उपचार करना चाहिए-

          इस रोग से पीड़ित रोगी को हिप बाथ, सिज बाथ और होल बाथ प्रतिदिन करना चाहिए। इस रोग से पीड़ित रोगी को बीच-बीच में शरीर में मौजूद दूषित तत्वों को निकालने के लिए कभी-कभी वाष्पस्नान भी करना चाहिए। इसके अतिरिक्त जिगर रोग में रोगी को जिगर के ठीक ऊपर गीली मिट्टी का पुल्टिस या शीतल पट्टी का लपेट करने से रोग में लाभ होता है।

परहेज-

          इस रोग में रोगी को आवश्यकता के अनुसार उपवास अथवा अर्द्ध उपवास करना चाहिए। इस रोग के ठीक होने पर हल्का भोजन करना चाहिए।

झिनझिनियां रोग होने का कारण




•यह रोग उन व्यक्तियों को ज्यादा होता है जो कब्ज के कारण परेशान रहते हैं क्योंकि कब्ज के कारण स्नायु में किसी प्रकार का दोष उत्पन्न हो जाता है और वे सही तरीके से अपना कार्य नहीं कर पाते हैं जिसके कारण झिनझिनियां रोग हो जाता है।
•यह रोग उन व्यक्तियों को भी हो जाता है जिनकी पाचनशक्ति बहुत ज्यादा कमजोर होती है क्योंकि पाचन शक्ति खराब होने के कारण रोगी व्यक्ति जो कुछ भी खाता है उसका रस न बनकर उल्टा वह पेट में सड़ने लगता है जिससे पेट में एक प्रकार की विषैली गैस उत्पन्न होने लगती है, जो मस्तिष्क की नाड़ियों की ओर बढ़ने लगती है और वहां की नाड़ियों में दोष उत्पन्न कर देती है। मस्तिष्क स्नायुमण्डल का केन्द्र होता है, वह गैस वहां पहुंचकर उपद्रव शुरू करती है और उसके बाद वह गैस स्नायु द्वारा शरीर की नस-नस में व्याप्त होकर गड़बड़ी उत्पन्न कर देती है।
•यह रोग मस्तिष्क के स्नायु में सूजन हो जाने के कारण अधिक होता है।
झिनझिनियां रोग हो जाने के लक्षण:-

          इस रोग के कारण रोगी व्यक्ति के शरीर के कई अंगों में कपंकपी तथा अकड़न होने लगती है। रोगी व्यक्ति को दौरे पड़ने लगते हैं। इस रोग के कारण रोगी व्यक्ति के चेहरे की चमक खो जाती है। रोगी व्यक्ति के पैर के अंगूठे से लेकर सिर तक के समस्त स्नायु रोगग्रस्त तथा उत्तेजित हो जाते हैं।

झिनझिनियां रोग होने पर प्राकृतिक चिकित्सा से उपचार:-

•झिनझिनियां रोग से पीड़ित रोगी को सबसे पहले तब तक कटिस्नान करना चाहिए जब तक कि उसका शरीर ठीक प्रकार से ठंडा न हो जाए। रोगी व्यक्ति को कटिस्नान करते समय अपने टांगों, पैरों और ऊपर के शरीर को छोड़कर शेष शरीर को ठंडा नहीं करना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से उन भागों में रक्त का संचारण कम हो सकता है इसलिए इन भागों को कपड़े से ढक कर रखना चाहिए। इस प्रकार से झिनझिनियां रोग का उपचार करने से यह रोग तुरन्त ही ठीक हो जाता है।
•झिनझिनियां रोग का प्राकृतिक चिकित्सा से उपचार करने के लिए रोगी व्यक्ति को कुछ दिनों तक फलों का रस (गाजर, सेब, चुकन्दर, अनानास, संतरा) पीकर उपवास रखना चाहिए। इसके बाद रोगी को फल, सब्जी और अंकुरित दालों का कुछ दिनों तक सेवन करना चाहिए। इसके फलस्वरूप दूषित द्रव्य जल्दी ही नष्ट हो जाते है और यह रोग ठीक हो जाता है।
•झिनझिनियां रोग से पीड़ित रोगी को भोजन में कॉफी, चाय, मैदा, रिफाइंड, चीनी, डिब्बाबंद खाद्य-पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए।
•सोयाबीन को दूध में डालकर उसमें शहद मिलाकर प्रतिदिन सेवन करने से स्नायु में पड़ी सूजन ठीक हो जाती है। इससे झिनझिनियां रोग कुछ ही समय में ठीक हो जाता है।
•इस रोग से पीड़ित रोगी को प्रतिदिन पानी में नमक डालकर स्नान करने से लाभ होता है।
•झिनझिनियां रोग को ठीक करने के लिए सबसे पहले रोगी व्यक्ति को स्नायु का रोग ठीक करना चाहिए, जिसके लिए कई प्रकार के आसन, यौगिक क्रियाएं तथा स्नान हैं जिनको प्रतिदिन करने से यह रोग ठीक हो जाता है ये आसन तथा यौगिक क्रियाएं और स्नान इस प्रकार हैं- रीढस्नान, कटिस्नान, मेहनस्नान, योगासन, एनिमा क्रिया तथा प्राणायाम आदि।
•झिनझिनियां रोग से पीड़ित रोगी को प्रतिदिन सुबह के समय में नियमित रुप से कोई न कोई हल्का व्यायाम करना चाहिए जिससे स्नायु को शक्ति मिल सके और वे सही तरीके से अपना कार्य कर सकें। इस रोग से पीड़ित रोगी को सुबह तथा शाम के समय में खुली हवा में टहलना चाहिए इससे रोगी को बहुत अधिक लाभ मिलता है।
•इस रोग से पीड़ित रोगी को रोजाना कम से कम 7 से 8 घण्टे की नींद लेनी चाहिए।
•झिनझिनियां रोग से पीड़ित रोगी को प्राकृतिक चिकित्सा से उपचार कराते समय अपनी सभी मानसिक परेशानियों, भय, चिंता आदि को दूर कर देना चाहिए।
•यदि रोगी व्यक्ति किसी कार्य को करने में जल्दी थक जाता हो तो उसे वह कार्य करना छोड़ देना चाहिए।
•झिनझिनियां रोग से पीड़ित रोगी को प्रतिदिन शुष्कघर्षण आसन करना चाहिए तथा इसके बाद साधारण स्नान करना चाहिए। इससे यह रोग जल्दी ही ठीक हो जाता है।
•झिनझिनियां रोग से पीड़ित रोगी को झगड़ा-झंझट, वैवाहिक जीवन की असंगति, पारिवारिक क्लेश, आर्थिक कठिनाइयां, प्रेम सम्बन्धी निराशा, यौन सम्बन्धी कुसंयोजन, क्रोध, भय, घृणा आदि मानसिक कारणों से दूर रहना चाहिए और अपना उपचार प्राकृतिक चिकित्सा से कराना चाहिए।
जानकारी-

           इस प्रकार से झिनझिनियां रोग से पीड़ित रोगी का प्राकृतिक चिकित्सा से उपचार करने से उसका यह रोग जल्दी ही ठीक हो जाता है।

तात्कालिक कब्ज (मलावरोध) का त्वरित उपचार


खानपान या मौसम की प्रतिकूलता के कारण अनेकों बार मलत्याग की हाजत बनने पर भी शौचालय में स्वाभाविक मलविसर्जन की प्रक्रिया आसानी से पूर्ण नहीं हो पाती । मलद्वार पर कोई रुकावट महसूस होने पर या दबाव में कमी महसूस होने पर योगाभ्यास की एक सामान्य प्रक्रिया अग्निसार क्रिया से तत्काल समस्या का निवारण करें । इसके लिये खडे होकर दोनों घुटनों से ठीक उपर अपने दोनों हाथों को पैरों पर जमाकर एक गहरी सांस खींचकर वापस छोड दें और पेट की श्वासरहित अवस्था में अपने पेट को 20 से 30 बार तक अन्दर बाहर चलालें । फिर श्वास लेकर पुनः वापस छोड दें और फिर पेट को 20 से 30 बार अन्दर बाहर चलावें और इस प्रक्रिया को तीन बार पूरा करके पुनः  अपने स्थान पर बैठ जाएं ।

अगले एकाध मिनिट में 90% से अधिक अवसरों पर इस स्थिति से गुजरने वाले व्यक्ति अपने पेट को सामान्य रुप से साफ होता महसूस करेंगे । इटालियन शीट का प्रयोग करने वाले बैठे-बैठे भी इस प्रक्रिया को सम्पादित कर इसका लाभ ले सकते हैं ।

Thursday, 25 September 2014

वजन एवं खराब कोलस्ट्रोल घटाने हेतु घरेलु आयुर्वेदिक नुस्खा




अपने किचन से निम्न मसाले बताई मात्रा अनुसार ले :
1. भुना हुआ जीरा – 50 ग्राम,
2. मैथीदाना – 50 ग्राम, ayurvedic nuskha
3. धनिया – 50 ग्राम,
4. सौंफ – 50 ग्राम,
5. काली मीर्च – 25 ग्राम,
6. लेंडी पीपल – 25 ग्राम,
7. सौंठ – 25 ग्राम
8. दालचीनी – 25 ग्राम
खराब कोलस्ट्रोल (एल.डी.एल.) व वजन घटाने के लिए उपरोक्त आठों चीजें कुट-पीस कर पाउडर बना ले । फिर प्रतिदिन आधा चम्मच दोनो समय भोजन के बाद एक कप गरम पानी में घोल कर लें । यह अच्छा पाचक व विरेचक भी है । उक्त प्रयोग से वजन भी कम होता है ।

फूलगोभी खाते रहने से पेट निकल आता है बाहर




,फूलगोभी खाते रहने से पेट फूल जाता है या ज्यादा बाहर निकल आता है बाकी शरीर पेट के मुकाबले कम फूलता है नतीजतन शरीर बेडौल दिखाई पड़ता है।

फूल गोभी में निम्न तत्व पाये जाते हैं। जल, प्रोटीन, वसा ,फाइबर, कार्बोहाइड्रेट, कैल्सियम, थायेमिन, राइबोफ्लेबिन, नियासिन, विटामिन सी,।
      ** गोभी वात पैदा करती है। लेकिन ये कफ और पित्त की बदबू को दूर भी करती है.
      ** गोभी के पंचांग का काढा पीने से मूत्राघात मिटता है।
      ** इसके पत्तो का साग बनाकर खाइये अगर आपको खूनी बवासीर हो गया हो तो।
      ** गोभी के बारे में यूनानी चिकित्सा कहती है कि अगर ये ठीक से पच गयी है तो पेट और पसलियों के बीच में दर्द पैदा करती है।
      ** अगर आप चाहते हैं कि शराब का नशा आपको न चढ़े तो शराब पीने से पहले इसकी पकौड़ियाँ या सब्जी खा लीजिये।
      ** गोभी कामशक्ति को तो बढाती है मगर दिमाग को कमजोर कर देती है।
      ** गोभी स्वरभंग की सबसे अच्छी दवा है इसके पत्ते और तने का काढा बनाइये फिर उसमे शहद मिला कर पी लीजिये, किसी भी वजह से आई आवाज की खराबी दूर हो जायेगी।
      ** किसी का बुखार न दूर हो रहा हो तो उसे गोभी की जड़ का काढा बनाकर सुबह शाम पिला दीजिये।
      ** पेट दर्द के लिए गोभी बहुत फायदेमंद है।पेटदर्द में गोभी के पंचांग को चावल के पानी में पकाकर सुबह शाम सौ सौ ग्राम पी लीजिये।
      ** गोभी का रस पीने से खून साफ़ होता है .
      ** हड्डियों का दर्द दूर करने के लिए गोभी का रस और गाजर का रस बराबर मात्र में मिलाकर पीजिये।यह रस पीलीया में भी लाभ पहुंचाता है।
      ** खून की उल्टियां हो रही हो तो गोभी की सब्जी खाएं या कच्ची गोभी को सलाद के रूप में खा लीजिये।
     ** गोभी का काढा पेशाब की जलन भी दूर करता है।   
     ** गले की सूजन में गोभी के पत्तो का रस निकालिए। २ चम्मच रस और २ चम्मच पानी मिलकर १-१ घंटे पर पी लिजिये।                     

    बंद गोभी या पत्तागोभी अनेक पौष्टिक खनिज लवण और विटामिन का स्रोत है। इसमें प्रोटीन, वसा, नमी, फाईबर तथा कर्बोहाइड्रेट भी अच्छी मात्रा में होता है। पत्तागोभी में कैल्सियम, फास्फोरस, आयरन, कैरोटीन, थायमिन, राइबोफ्लेविन, नियासिन तथा विटामिन सी भी प्रचुर मात्रा में होता है। इसमें क्लोरीन तथा सल्फर भी पाया जाता है और अपेक्षाकृत आयोडीन का प्रतिशत भी अधिक होता है। सल्फर, क्लोरीन तथा आयोडीन साथ में मिल कर आँतों और आमाशय की म्यूकस परत को साफ कर देते हैं।
    ** अगर आपकी प्लेटलेट्स घट गयी हैं तो पूरी पत्ता गोभी उबाल कर पी लीजिये ,सुबह शाम १-१ ,दस पत्तागोभी का रस आपकी प्लेटलेट्स को बिलकुल सही मुकाम पर पहुंचा देगा। 

 .औषध प्रयोग से पूर्व किसी मान्यताप्राप्त हकीम या वैद्य से सलाह लेना आपके हित में उचित होगा

जटामांसी :सिर की ज्यादातर बीमारियों के लिए



    आइये  पहले इसके नामो के बारे में जानते हैं-
    हिंदी- जटामांसी, बालछड , गुजराती में भी ये ही दोनों नाम,तेल्गू में जटामांही ,पहाडी लोग भूतकेश कहते हैं और संस्कृत में तो कई सारे नाम मिलते हैं- जठी, पेशी, लोमशा, जातीला, मांसी, तपस्विनी, मिसी, मृगभक्षा, मिसिका, चक्रवर्तिनी, भूतजटा.यूनानी में इसे सुबुल हिन्दी कहते हैं.
    ये पहाड़ों पर ही बर्फ में पैदा होती है. इसके रोयेंदार तने तथा जड़ ही दवा के रूप में उपयोग में आती है. जड़ों में बड़ी तीखी तेज महक होती है.ये दिखने में काले रंग की किसी साधू की जटाओं की तरह होती है.
    इसमें पाए जाने वाले रासायनिक तत्वों के बारे में भी जान लेना ज्यादा अच्छा रहेगा---- इसके जड़ और भौमिक काण्ड में जटामेंसान , जटामासिक एसिड ,एक्टीनीदीन, टरपेन, एल्कोहाल , ल्यूपियाल, जटामेनसोंन और कुछ उत्पत्त तेल पाए जाते हैं.
    अब इस के उपयोग के बारे में जानते हैं :-
    मस्तिष्क और नाड़ियों के रोगों के लिए ये राम बाण औषधि है, ये धीमे लेकिन प्रभावशाली ढंग से काम करती है.
    पागलपन , हिस्टीरिया, मिर्गी, नाडी का धीमी गति से चलना,,मन बेचैन होना, याददाश्त कम होना.,इन सारे रोगों की यही अचूक दवा है.
    ये त्रिदोष को भी शांत करती है और सन्निपात के लक्षण ख़त्म करती है.
    इसके सेवन से बाल काले और लम्बे होते हैं.
    इसके काढ़े को रोजाना पीने से आँखों की रोशनी बढ़ती है.
    चर्म रोग , सोरायसिस में भी इसका लेप फायदा पहुंचाता है.
    दांतों में दर्द हो तो जटामांसी के महीन पावडर से मंजन कीजिए.
    नारियों के मोनोपाज के समय तो ये सच्ची साथी की तरह काम करती है.
    इसका शरबत दिल को मजबूत बनाता है, और शरीर में कहीं भी जमे हुए कफ  को बाहर निकालता है.
    मासिक धर्म के समय होने वाले कष्ट को जटामांसी का काढा ख़त्म करता है.
    इसे पानी में पीस कर जहां लेप कर देंगे  वहाँ का दर्द ख़त्म हो जाएगा ,विशेषतः सर का और हृदय का.
    इसको खाने या पीने से मूत्रनली के रोग, पाचननली के रोग, श्वासनली के रोग, गले के रोग, आँख के रोग,दिमाग के रोग, हैजा, शरीर में मौजूद विष नष्ट होते हैं.
    अगर पेट फूला हो तो जटामांसी को सिरके में पीस कर नमक मिलाकर लेप करो तो पेट की सूजन कम होकर पेट सपाट हो जाता है.

भृंगराज

          
भृंगराज के पौधे वर्षा के मौसम में खेतों के किनारे ,रेल लाइन के किनारे, खाली पड़ी जमीन पर ,बाग़ बगीचों में खुद ही उग जाते हैं। ये हमेशा हरे रहते हैं।इनके फूल पत्ते तने जड़ सब उपयोगी हैं। इनकी झाड़ियाँ ज्यादा से ज्यादा आधा मीटर तक उंची मिलेंगी।
इस पौधे में बीटा-एमिरीन ,विडेलोलेक्टोंन, ग्लूकोसैड्स-फायटोस्टीराल-ए , ल्यूतियोलिन, फैटिक एसिड ,पामीटिक एसिड, ट्रायतर्पेनीक एसिड, स्टीयरिक एसिड,लिनोलिक एसिड और आलिक एसिड , एकलिप्तींन ,एम्पलिप्तींन एल्केलायद ,निकोटीन और राल जैसे तत्व मौजूद हैं।
 
----पीलिया एक जानलेवा रोग है ,लेकिन आप रोगी को पूरे  भृंगराज के  पौधे का चूर्ण मिश्री के साथ खिला दीजिये 100 ग्राम चूर्ण पेट में पहुंचाते ही पीलिया ख़त्म . या फिर भृंगराज के पौधे को ही क्रश करके 10 ग्राम रस निकालिए ,उसमें 1 ग्राम काली मिर्च का पावडर मिलाकर मरीज को पिला दीजिये .दिन में 3 बार ,3 दिनों तक इस मिश्रण में थोड़ा मिश्री का चूर्ण भी मिला लीजियेगा ।
----बाल काले रखने हैं तो भृंगराज की ताजी पत्तियों का रस रोजाना सिर  पर मल कर सोयें।
----गुदाभ्रंश हो गया हो तो भृंगराज की जड़ और हल्दी की चटनी को मलहम की  तरह मलद्वार पर लगाए इससे कीड़ी काटने की बीमारी मेंभी आराम मिलता है .गुदा भ्रंश में मल द्वार थोड़ा बाहर निकल आता है.
----पेट बहुत खराब हो तो भृंगराज कीपत्तियों का रस या चूर्ण दस ग्राम लीजिये उसे एक कटोरी दही में मिला कर खा जाएँ ,दिन में दो बार ३ दिनों तक .
----आँखों की रोशनी तेज रखनी है तो भृंगराज  की पत्तियों का ३ ग्राम पाउडर १ चम्मच शहद में मिला कर रोज सुबह खाली  पेट खाएं।
----भृंगराज सफ़ेद दाग का भी इलाज करता है मगर काली पत्तियो और काली शाखाओं वाला भृंगराज चाहिए।इसे आग पर सेंक कर रोज खाना होगा ,एक दिन में एक पौधा लगभग चार माह तक लगातार खाए।
----जिन महिलाओं को गर्भस्राव की बिमारी है उन्हें गर्भाशय को शक्तिशाली बनाने के लिए भृंगराज की ताजी पत्तियों का ५-६ ग्राम रस रोज पीना चाहिये
----त्रिफला के चूर्ण को भृंगराज  के रस की ३ बार भावना देकर सुखा कर रोज आधा चम्मच पानी के साथ निगलने से बाल कभी सफ़ेद होते ही नही। इसे किसी जानकार वैद्य से ही तैयार कराइये.
----अगर कोई तुतलाता हो तो इसके पौधे के रस में देशी घी मिला कर पका कर दस  ग्राम रोज पिलाना चाहिए ,एक माह तक लगातार।
----इसके रस में यकृत की सारी बीमारियाँ ठीक कर देने का गुण मौजूद है लेकिन जिस दिन इसका ताजा रस दस ग्राम  पीजिये उस दिन सिर्फ दूध पीकर रहिये भोजन नहीं करना है ,यदि यह काम एक माह तक लगातार कर लिया जाय तो कायाकल्प भी सम्भव है।यह एक कठिन तपस्या है.
----अब इसका सबसे महत्वपूर्ण उपयोग सुनिए- बच्चा पैदा होने के बाद महिलाओं को योनिशूल बहुत परेशान करता है,उस दशा में भृंगराज के पौधे की जड़ और बेल के पौधे की जड़ का पाउडर बराबर मात्रा में लीजिये और शहद के साथ खिलाइये ,५ ग्राम पाउडर काफी होगा ,दिन में एक बार खाली पेट लेना है ७ दिनों तक .
     

ज़रूरी है combinations समझना



अगर कोई क्रिकेट खेलने मैदान में उतरे, और आप उसे टेबल-टेनिस की बैट थमा दें, तो बेचारा १ रन भी न बना पाए.
वैसे ही क्रिकेट के बल्ले से कोई टेनिस नहीं खेल सकता. चीज़ों का यथोचित combination बहुत ही आवश्यक होता है.
ये नियम सुलभ स्वस्थ्य के लिए भी लागू होते हैं. कई बार दादी-नानी से सुना होगा आपने कि 'फलां' खाके 'फलां' नहीं खाते, 'फलां' नहीं पीते. सदियों के अनुभव से जुड़ी हैं हमारी दादी-नानियों की ये बातें, जो आजकल की दौर में हम नज़र-अंदाज़ करते जा रहे हैं.

सबसे पहले मैं एक उदाहरण अपने आयुर्वेद से ही लेता हूँ:

सिंधूत्शर्कराशुण्ठीकणामधुगुडै: क्रमात ।
वर्षादिष्वभयाभ्यस्ता रसायन गुणैषिणा ।। (योगरत्नाकर: ४९९)

हरीतकी/हर्रे को आयुर्वेद में माँ का दर्ज़ा दिया गया है, जो शरीर की दुर्बलता नष्ट करके दीर्घायु प्रदान करती है. परन्तु हरीतकी को भी विशेष combinations के साथ लेनेका सुझाव बताया गया है, जो इस प्रकार है:
१) वर्षा ऋतु में 'सैन्धव' नमक के साथ
२) हेमंत ऋतु में 'शक्कर' के साथ
३) शरद ऋतु (पूर्वार्ध) में अदरक के साथ
४) शरद ऋतु (शेषार्ध) में पिप्पली/ पेप्पर के साथ (जो सोंठ के साथ अक्सर आचारों में डाला जाता हैं)
५) वसंत ऋतु में मधु के साथ
६) ग्रीष्म ऋतु में गुड़/मिट्ठे के साथ

 ये तो हुआ एक उदाहरण. अब ज़रा अपनी वैज्ञानिक दृष्टि डाली जाए. एक बात तो तय है कि विभिन्न ऋतुओं में बाह्य तापमान और आद्रता के साथ शरीर को समन्वय बिठाना पड़ता है.

जाड़े में शरीर को अंदरूनी गर्मी की ज़रुरत होती है, अतः glucose और fat metabolism तेज़ होता है. ऐसे में खाने में gluocose तथा fat से परिपूर्ण चीज़ों का प्रयोग करना चाहिए. इसीलिए कहते हैं की जाड़े में मेवे-मिष्टान्न, dry fruits इत्यादि छक कर खाना चाहिए. इसी लिस्ट में गोंद तथा तिल भी आते हैं मगर इनका combination होना चाहिए मधु या गुड़ के साथ. मकर संक्रांति में तिल के लड्डू (गुड़ के पार वाले) खाने का विधान है. इसका मतलब ये नहीं कि १४ जनवरी को खाया और हो गया. ये तो बस सबब है याद रखने का ताकि लोग तिल-गोंद-गुड़ इत्यादि का सेवन अधिक से अधिक इस ऋतु में कर सकें.
इसके विपरीत, गर्मी के समय में ये metabolism बहुत धीमी पड़ जाती है. ऊपर से स्वेद/पसीने के कारण काफी लवणों का क्षय भी होता है शरीर में. सैन्धव तथा काले नमक में दर्जनों किस्म के लावन मौजूद होते हैं जो शरीर के metabolism को सुचारू रूप से चलने में मदद करते हैं. ग्रीष्म ऋतु में गरिष्ठ भोजन (अत्यधिक मात्र में मेवे मिष्टान्न, dry-fruits इत्यादि) पाचन तंत्र के लिए हानिकारक है.

प्राकृतिक चिकित्सा से जहर का नशा उतारने के लिए उपचार


प्राकृतिक चिकित्सा से जहर का नशा उतारने के लिए उपचार निम्नलिखित हैं-

•यदि किसी व्यक्ति ने शीशे का चूरा खा लिया है तो उस व्यक्ति का इलाज प्राकृतिक चिकित्सा से करने के लिए उसको दही पिलाना चाहिए। फिर रोगी को उल्टी कराने का प्रयास करना चाहिए। उल्टी करने से रोगी के पेट से शीशे का चूरा बाहर निकल जाता है।
•यदि कोई व्यक्ति तेजाब या किसी प्रकार का जहर खा लेता है तो रोगी व्यक्ति को दूध या पानी में अण्डे की सफेदी अच्छी तरह फेंटकर या फिर दूध या ठंडा पानी कई बार काफी मात्रा में पिलाना चाहिए। फिर इसके बाद उतना दूध अन्तड़ियों में पहुंचाना चाहिए जितना रोगी रोक सके। उसके बाद रोगी की गर्दन के सामने वाले हिस्से पर मिट्टी की उष्ण गीली मिट्टी लगानी चाहिए। इस प्रकार से रोग का इलाज प्राकृतिक चिकित्सा से करने से रोगी के शरीर से जहर का असर खत्म हो जाता है।
•यदि कोई व्यक्ति किसी भी प्रकार का जहर खा लेता है तो उसे तुरंत उल्टी कराकर पेट में गए जहर को निकाल देना चाहिए। इसके लिए गर्म पानी में अधिक मात्रा में नमक मिलाकर प्रत्येक 5 मिनट के बाद रोगी को पिलाते रहना चाहिए और फिर रोगी के हलक में उंगुली आदि डालकर उल्टी करनी चाहिए। रोगी व्यक्ति को बार-बार उल्टी करानी चाहिए। इसके बाद उसे नमक मिले गुनगुने पानी से एक या दो बार गरारा कराना चाहिए। फिर रोगी व्यक्ति को उदरस्नान तथा भापस्नान कराना चाहिए। इस प्रकार से रोगी का इलाज प्राकृतिक चिकित्सा से करें तो रोगी के शरीर से जहर का असर कम हो जाता है।
•यदि किसी व्यक्ति ने अफीम का जहर खा लिया है तो उसका जहर उतारने के लिए हींग को छाछ में घोलकर पिलाना चाहिए या फिर जामुन के पत्तों का रस पिलाना चाहिए। इस प्रकार से रोगी का इलाज प्राकृतिक चिकित्सा से करें तो रोगी के शरीर से जहर का असर कम हो जाता है।
•यदि किसी व्यक्ति ने धतूरे का जहर खा लिया है तो उस व्यक्ति के शरीर से जहर के असर को खत्म करने के लिए रोगी को नमक मिला पानी पिलाना चाहिए या गूलर की जड़ की छाल को कालीमिर्च के साथ पीसकर पिलानी चाहिए। इस प्रकार से रोगी का इलाज प्राकृतिक चिकित्सा से करें तो रोगी के शरीर में जहर का असर कम हो जाता है और कुछ ही समय में रोगी व्यक्ति ठीक हो जाता है।
•यदि किसी व्यक्ति ने संखिया का जहर खा लिया है तो उसके शरीर में फैले जहर के असर को खत्म करने के लिए कड़वी नीम की पत्तियों को गर्म पानी के साथ पीसकर पिलाना चाहिए या फिर दूध में घी मिलाकर पिलाना चाहिए। इस प्रकार से रोगी का इलाज प्राकृतिक चिकित्सा से करें तो रोगी के शरीर से जहर का असर कम हो जाता है।
•यदि किसी व्यक्ति ने बहुत अधिक भांग खा ली हो जिसके कारण रोगी व्यक्ति को बहुत ज्यादा नशा चढ़ गया हो तो रोगी व्यक्ति का इलाज करने के लिए उसे अरहर की दाल की धोवन का पानी पिलाना चाहिए। व्यक्ति को अरहर की दाल के धोवन को पिलाने से भांग का नशा कम हो जाता है।
•यदि किसी व्यक्ति ने पारे या जस्ते का जहर खा लिया है तो उस व्यक्ति के शरीर से जहर का असर खत्म करने के लिए उसे गेहूं के आटे को पानी में घोलकर पिलाने से जहर उतर जाता है।
•यदि किसी व्यक्ति ने कुचला का जहर खा लिया है तो उसके शरीर से जहर के असर को खत्म करने के लिए उसे घी मिला दूध पिलाना चाहिए या फिर जामुन की गुठली का 10 ग्राम चूर्ण फांककर पानी में मिलाकर पीने से जहर उतर जाता है। इस प्रकार से रोगी का इलाज प्राकृतिक चिकित्सा से करें तो रोगी के शरीर में जहर का असर कम हो जाता है रोगी व्यक्ति ठीक हो जाता है।

हिचकी को ठीक करने के लिए प्राकृतिक चिकित्सा से उपचार




•जब हिचकी आए तो उस समय एक गिलास गर्म पानी पीने से यह रोग ठीक हो जाता है।
•इस रोग को ठीक करने के लिए पेट की सिंकाई तथा पेट पर ठंडे लपेट का प्रयोग करना चाहिए। ऐसा करने से पेट के डायाफ्रॉम पर दबाव कम हो जाता है जिसके फलस्वरूप हिचकी बंद हो जाती है।
•हिचकी आने पर लम्बी तथा गहरी सांस लेने से हिचकी बंद हो जाती है।
•अपना ध्यान किसी दूसरी चीजों पर केन्द्रित करने से हिचकी आना बंद हो जाती है।
•बर्फ के छोटे-छोटे टुकड़े को मुंह में रखकर चूसने से हिचकी आना बंद हो जाती है।
•हिचकी आने पर 1 चम्मच चीनी या शहद का सेवन करने से यह रोग तुरंत ठीक हो जाता है।
•एक गिलास गर्म पानी में 1 चम्मच शहद डालकर उस पानी को पीने से हिचकी बंद हो जाती है।
•छोटी इलायची और तुलसी के पत्तों को एकसाथ पीसकर पानी में मिलाकर पीने से हिचकी बंद हो जाती है।
•2-3 लौंग को चबाकर उसके ऊपर पानी पीने से हिचकी बंद हो जाती है।


Wednesday, 24 September 2014

चेहरे पर काले या फिर भूरे रंग के दाग पड़ जाना

हलजन की सिहुली

          इस रोग से पीड़ित रोगी के चेहरे पर काले या फिर भूरे रंग के दाग पड़ जाते हैं। हलजन की सिहुली एक चर्म रोग है। इस रोग से पीड़ित रोगी के चेहरे के दाग कभी-कभी बढ़कर पूरे शरीर में फैल जाते हैं।
हलजन की सिहुली रोग होने का कारण-
           इस रोग के होने का सबसे प्रमुख कारण अनुचित खान-पान (सही तरीके से भोजन न खाना) तथा अनुचित रहन-सहन (ठीक तरीके से जीवन न जीना) है, जिसके कारण खून (रक्त) दूषित (जहरीला) हो जाता है और व्यक्ति के चेहरे पर हलजन की सिहुली रोग हो जाता है।

हलजन की सिहुली रोग का प्राकृतिक चिकित्सा से उपचार-

•हलजन की सिहुली रोग को ठीक करने के लिए सबसे पहले रोगी व्यक्ति को कुछ दिनों तक फलों का सेवन करके उपवास रखना चाहिए। रोगी व्यक्ति को उपवास रखने के साथ-साथ एनिमा क्रिया करनी चाहिए। इसके साथ-साथ प्रतिदिन 15 मिनट से 30 मिनट तक सुबह तथा शाम के समय में धूपस्नान करना चाहिए। इसके बाद सप्ताह में एक बार पूरे शरीर पर भाप से स्नान (गर्म पानी के भाप को पूरे शरीर पर लगाना) करना चाहिए। इसके बाद महीने में 1-2 बार पेड़ू स्नान (नाभि को पानी से धोना) सुबह तथा शाम के समय में 10 से 15 मिनट तक करना चाहिए।
•हलजन की सिहुली रोग से पीड़ित रोगी को रात को सोने से पहले मिट्टी की गीली पट्टी से अपने पेडू पर लेप करना चाहिए।
•हलजन की सिहुली रोग से पीड़ित रोगी को प्रतिदिन 1 गिलास गुनगुने पानी में 1-2 कागजी नींबू के रस को मिलाकर पीना चाहिए।
•आसमानी और पीली बोतलों के सूर्यतप्त जल को लगभग 25 ग्राम की मात्रा में समान मात्रा में लेकर एक दिन में 6 बार पीना चाहिए।
•हलजन रोग से पीड़ित रोगी को अपने चेहरे पर हरे रंग की बोतलों का सूर्यतप्त जल कुछ मात्रा में लेकर चेहरे पर मालिश करनी चाहिए।
•हलजन रोग से पीड़ित रोगी को हमेशा शुद्ध, सादा तथा ताजा भोजन करना चाहिए।

फोड़ा



          इस रोग के कारण रोगी व्यक्ति के शरीर पर बड़े-छोटे दाने निकल जाते हैं जिनमें पीब तथा मवाद भरी रहती है। इस रोग के कारण फोड़े में गांठ भी पड़ जाती है तथा कुछ दिनों के बाद ये गांठ मुलायम पड़ जाती है तथा उसमें पीब और दूषित रक्त भर जाता है। इसी को फोड़ा कहते हैं। जब यह फूट जाता है तो इसमें से दूषित पदार्थ पीब और विषैला रक्त (खून) निकलने लगता है।

          फोड़ा छोटे तथा बड़े दोनों ही रूप में हो सकता है। इस रोग से पीड़ित रोगी को बुखार तथा कब्ज की शिकायत भी हो सकती है। ये फोड़े कभी-कभी 2-3 दिनों में अपने आप ठीक हो जाते हैं तो कुछ जल्दी ठीक नहीं होते हैं। जब फोड़ा फूट जाता है तो 7 से 10 दिनों तक यह सूख जाता है। जब फोड़े के साथ छेड़छाड़ करते है तो यह असाधारण रूप ले लेता है और यह नासूर, नहरूआ तथा कैंसर आदि रोगों का रूप ले लेता है और बहुत अधिक दर्दनाक हो जाता है।

फोड़ा होने का कारण:-

            फोड़ा होने का सबसे प्रमुख कारण शरीर में दूषित द्रव्य का जमा हो जाना है। जब रक्त में दूषित द्रव्य मिल जाते हैं तो शरीर के किसी कमजोर भाग पर यह दाने के रूप में निकलने लगते हैं और उसमें मवाद या पीब भर जाती है। फोड़ा में गांठ भी बन जाती है तथा रोग ग्रस्त भाग कभी-कभी लाल रंग का हो जाता है और उस स्थान पर जलन, खाज तथा दर्द भी होने लगता है।

फोड़े का प्राकृतिक चिकित्सा से उपचार:-

•फोड़े का प्राकृतिक चिकित्सा से उपचार करने के लिए सबसे पहले रोगी व्यक्ति का फोड़ा जब तक पक न जाए तब तक उस पर प्रतिदिन 2-3 बार गुनगुना पानी छिड़कना चाहिए या फिर 10 मिनट तक 2-3 बार कम से कम 2 घण्टे तक बदल-बदल कर गर्म मिट्टी का लेप करना चाहिए या फिर कपड़े की गीली पट्टी करनी चाहिए। जब फोड़ा पक जाए तो उसे फोड़कर उसकी पीब तथा जहरीले रक्त को बाहर निकाल देना चाहिए। इसके बाद नीम की पत्तियों को पीसकर लेप बनाकर फोड़े पर लगाएं तथा कपड़े से पट्टी कर लें। इस प्रकार से प्रतिदन पट्टी करने से फोड़ा कुछ ही दिनों में ठीक हो जाता है।
•रोगी व्यक्ति को प्रतिदिन गुनगुने पानी से एनिमा क्रिया करनी चाहिए ताकि उसका पेट साफ हो सके तथा दूषित द्रव्य उसके शरीर से बाहर निकल सके।
•नींबू के रस को पानी में मिलाकर उस पानी से फोड़े को धोना चाहिए तथा इसके बाद फोड़े पर कपड़े की पट्टी कर लेनी चाहिए। जब फोड़ा पीबयुक्त हो जाए तो उस पर कम से कम 5 मिनट तक गर्म पानी में भीगे कपड़े की पट्टी करनी चाहिए। इसके बाद फोड़े को फोड़कर पीब तथा जहरीले रक्त को बाहर निकाल देना चाहिए और फिर इसके बाद ठंडे पानी में भीगे कपड़े से दिन में 3-4 बार सिंकाई करनी चाहिए। इससे फोड़ा जल्द ही ठीक हो जाता है।
•जब फोड़ा फूट जाए तो दिन में 2 बार उस पर हल्की भाप देकर बलुई मिट्टी की भीगी गर्म पट्टी या कपड़े की भीगी पट्टी बदल-बदलकर लगानी चाहिए। इसके बाद जब उस पट्टी को खोलें तो उसे ठंडे पानी से धोकर ही खोलना चाहिए।
•जब रोगी के शरीर में अधिक संख्या में फोड़े निकल रहे हों तो उस समय रोगी व्यक्ति को 2 दिनों तक उपवास रखना चाहिए तथा फलों का रस पीना चाहिए तथा दिन में गुनगुने पानी से एनिमा क्रिया करनी चाहिए। इसके साथ-साथ रोगी व्यक्ति को नींबू का रस पानी में मिलाकर पीना चाहिए। रोगी व्यक्ति को सप्ताह में 1 बार फोड़ों पर ठंडी पट्टी रखकर स्नान करना चाहिए तथा पैरों को गर्म पानी से धोना चाहिए। रोगी व्यक्ति को प्रतिदिन 2 बार कटिस्नान तथा मेहनस्नान करना चाहिए। रात के समय में रोगी व्यक्ति को अपने पेट पर मिट्टी की गर्म पट्टी रखनी चाहिए। इसके अलावा रोगी को गुनगुने पानी से स्नान करना चाहिए तथा तौलिये से अपने शरीर को पोंछना चाहिए। फोड़े पर हरा प्रकाश देकर नीला प्रकाश भी देना चाहिए। इस प्रकार से प्राकृतिक चिकित्सा से उपचार करने से फोड़ा जल्दी ठीक हो जाता है।
•फोड़ों को मक्खी आदि से बचाने के लिए उन पर नारियल के तेल में नींबू का रस मिलाकर लगाना चाहिए और इसके साथ-साथ इसका प्राकृतिक चिकित्सा से उपचार करना चाहिए। इससे फोड़ा जल्दी ही ठीक हो जाता है।
•सुबह के समय में नीम की 4-5 पत्तियां चबाने से फोड़ा जल्दी ही ठीक हो जाता है।

हकलाना तथा तुतलाना



          हकलाने या तुतलाने का रोग अधिकतर नाड़ियों में किसी प्रकार से दोष उत्पन्न होने के कारण होता है। यह रोग उन व्यक्तियों को भी हो जाता है जो एक हकलाने वाले व्यक्ति की नकल करते रहते हैं।

हकलाने तथा तुतलाने के लक्षण:-

          बोलते समय ठीक तरह से अक्षरों को न बोल पाना तथा रुक-रुककर बोलना, तुतलाने या हकलाने का रोग कहलाता है। कुछ रोगियों में तो हकलाहट जरा सी होती है, जो धीरे-धीरे अपने आप ठीक हो जाती है। लेकिन कुछ मामलों में जब यह रोग पुराना हो जाता है तो रोगी को बोलने में बहुत परेशानी होती है।

हकलाना तथा तुतलाने का कारण:-

          जब किसी व्यक्ति की पेशियों तथा स्नायुओं का नियंत्रण दोषपूर्ण हो जाता है तो वह व्यक्ति बोलते समय शब्दों का उच्चारण ठीक तरह से नहीं कर पाता है और वह रुक-रुककर बोलने लगता है। इस रोग के हो जाने के कारण रोगी की जीभ और होठों की आवश्यक गतिशीलता जो बोलने में उपयोग होती है तथा कठिनाई से पूरी होती है। इसके साथ ही स्वर यंत्र में आवाज पैदा हो जाती है जिसके कारण व्यक्ति तुतलाने लगता है। हकलाने के रोग में व्यक्ति को हर शब्द में तो नहीं पर कुछ शब्दों को बोलने में परेशानी होती है।

हकलाने तथा तुतलाने का प्राकृतिक चिकित्सा से उपचार :-

•यदि कोई बच्चा हकलाने या तुतलाने के रोग से पीड़ित है तो उसके रोग को ठीक करने के लिए, उसे कुछ दिनों तक आंवला चबाने के लिए देना चाहिए। जिसके फलस्वरूप रोगी की जीभ पतली होकर उसकी आवाज साफ निकलने लगती है।
•इस रोग से पीड़ित रोगी को सुबह के समय में 10 भिगोए हुए बादाम को छीलकर और पीसकर मक्खन, मिश्री के साथ सेवन करना चाहिए। इससे यह रोग कुछ ही दिनों में ठीक हो जाता है।
•रोगी व्यक्ति यदि प्रतिदिन 10 कालीमिर्च के दाने और बादाम की गिरी को पीसकर मिश्री में मिलाकर चाटे तो उसका तुतलाने तथा हकलाने का रोग ठीक हो जाता है।
•रोजाना गाय के घी में आंवले का चूर्ण मिलाकर चाटने से भी तुतलाना तथा हकलाना दूर हो जाता है।
•छुहारे को दूध में उबालकर और चबाकर खा ले तथा इसके बाद दूध पी लें। इसके बाद दो घंटे तक कुछ नहीं खाना चाहिए। इससे आवाज बिलकुल साफ हो जाती है। यह क्रिया कुछ दिनों तक प्रतिदिन करने से रोगी का तुतलाना तथा हकलाना ठीक हो जाता है।
•तुतलाने तथा हकलाने का प्राकृतिक चिकित्सा से उपचार करने के लिए रोगी व्यक्ति को कुछ दिनों तक फलों का रस (गाजर, सेब, चुकन्दर, अनन्नास, संतरा) पीकर उपवास रखना चाहिए। इसके बाद कुछ दिनों तक रोगी को फल, सब्जी, अंकुरित दाल का सेवन करना चाहिए। इससे रोगी को बहुत लाभ मिलता है।
•इस रोग से पीड़ित रोगी को भोजन में कॉफी, चाय, मैदा, रिफाइण्ड, चीनी, डिब्बाबंद खाद्य पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए।
•सोयाबीन को दूध में डालकर उसमें शहद मिलाकर प्रतिदिन सेवन करने से स्नायु की सूजन ठीक हो जाती है। इससे हकलाने तथा तुतलाने का रोग बिल्कुल ठीक हो जाता है।
•पानी में नमक डालकर प्रतिदिन स्नान करने से रोगी का तुतलाने तथा हकलाने का रोग दूर हो जाता है।
•इस रोग से पीड़ित रोगी को सुबह के समय में प्रतिदिन नियमित रुप से कोई हल्का व्यायाम करना चाहिए, जिससे स्नायु को शक्ति मिल सके और वह सही तरीके से अपना कार्य कर सके। इस रोग से पीड़ित रोगी को सुबह तथा शाम के समय में खुली हवा में टहलने से बहुत अधिक लाभ मिलता है।
•इस रोग से पीड़ित रोगी को गहरी नींद लेनी चाहिए तथा कम से कम 7-8 घंटे तक सोना चाहिए।
•इस रोग से पीड़ित रोगी को प्राकृतिक चिकित्सा से उपचार कराते समय अपनी सभी मानसिक परेशानियों, भय, चिंता आदि को दूर कर देना चाहिए।
•यदि रोगी व्यक्ति किसी कार्य को करते समय जल्दी थक जाता हो तो उसे वह कार्य नही करना चाहिए।
•प्रतिदिन शुष्कघर्षण आसन करने तथा इसके बाद साधारण स्नान करने से हकलाने तथा तुतलाने का रोग जल्दी ही ठीक हो जाता है।
•इस रोग से पीड़ित रोगी को झगड़ा-झंझट, वैवाहिक जीवन की असंगति, पारिवारिक क्लेश, आर्थिक कठिनाइयां, प्रेम सम्बन्धी निराशा, यौन सम्बन्धी कुसंयोजन तथा क्रोध, भय आदि मानसिक कारणों से दूर रहना चाहिए क्योंकि इन सभी कारणों से रोग की अवस्था और भी गम्भीर हो सकती है।
•शहद में कालीमिर्च मिलाकर प्रतिदिन चाटने से हकलाना तथा तुतलाना ठीक हो जाता है।
•रात को सोते समय भुनी हुई फिटकरी को मुंह में रखकर सो जाएं और सुबह के समय में उठकर कुल्ला कर लें। इस क्रिया को लगभग एक महीने तक करने से हकलाने तथा तुतलाने का रोग ठीक हो जाता है।
•इस रोग से पीड़ित रोगी को खाना खाने के बाद अपने मुंह में छोटी इलायची तथा लौंग रखनी चाहिए तथा जीभ को प्रतिदिन साफ करना चाहिए और यदि कब्ज की शिकायत हो तो उसे दूर करना चाहिए।
•हकलाने और तुतलाने के रोग से पीड़ित रोगी को मन से भय की भावना बिल्कुल निकाल देनी चाहिए तथा मन को सबल बनाना चाहिए।
•इस रोग से पीड़ित रोगी को रात के समय में शंख में पानी भरकर फिर सुबह के समय में उठकर उस पानी को प्रतिदिन पीने से यह रोग ठीक हो जाता है।
•प्रतिदिन एनिमा लेने से तथा इसके बाद गुनगुने पानी से गरारा करने से रोगी का गला साफ हो जाता है और उसका तुतलाना तथा हकलाना बंद हो जाता है।
•जबड़ों की पेशियों के कड़ेपन और होठों की गतिमन्दता के कारण भी हकलाने तथा तुतलाने का रोग हो जाता है, इसलिए रोग का उपचार करने के लिए रोगी व्यक्ति को अपने हाथ की तर्जनी उंगुली को मुंह में डालकर नीचे के जबड़े को धीरे-धीरे नीचे की ओर ले जाना चाहिए। इसके बाद पेशियों को ढीला छोड़ देना चाहिए, जिससे जबड़ा अपने ही भार से नीचे की ओर चला जाए। जब यह क्रिया कर रहे हो उस समय गले में कोई गति नहीं होनी चाहिए। इस प्रकार के व्यायाम प्रतिदिन करने से यह रोग कुछ ही दिनों में ठीक हो जाता है।
•हकलाने तथा तुतलाने के रोग को ठीक करने के लिए रोगी व्यक्ति को एक कुर्सी पर लिटाकर शरीर को सीधा तथा ढीला छोड़ देना चाहिए। उसके बाद चेहरे की पेशियों को ढीली करके जबड़े को नीचे गिरने देना चाहिए। इस अवस्था में रोगी व्यक्ति को अपनी जीभ मुंह की तली से सटाकर रखनी चाहिए। इस व्यायाम को प्रतिदिन करने से यह रोग कुछ ही दिनों में ठीक हो जाता है।
•रोगी व्यक्ति को अपने मुंह की पेशियों को ठीक करने के लिए प्रतिदिन शीशे के सामने 15 मिनट तक खड़े होकर या बैठकर जोर-जोर से कुछ पढ़ना चाहिए और उस समय गहरी सांस लेनी चाहिए। रोगी को पढ़ते समय प्रत्येक शब्द का उच्चारण सही करने की कोशिश करनी चाहिए। इस प्रकार से उपचार प्रतिदिन करने से कुछ ही दिनों में हकलाने तथा तुतलाने का रोग ठीक हो जाता है।
•इस रोग को ठीक करने के लिए कई प्रकार के आसन हैं। इन आसनों के करने से हकलाना तथा तुतलाना ठीक हो जाता है। ये आसन इस प्रकार हैं- उष्ट्रासन, हलासन, मण्डूकासन, मत्स्यासन, सुप्तवज्रासन, जानुशीर्षासन, सिंहासन, धुनरासन तथा खेचरी मुद्रा आदि।
•किसी भी ठीक व्यक्ति को हकलाने वाले व्यक्ति की नकल नहीं करनी चाहिए क्योंकि ऐसा करने से उसे भी हकलाने की आदत पड़ सकती है।

फाइलेरिया



         फाइलेरिया रोग के होने का सबसे प्रमुख कारण एक ऐसे कीटाणु का संक्रमण है जो पानी में पनपता है। जो लोग अप्राकृतिक रूप से जीवन व्यतीत करने वाले होते हैं उनके शरीर में विजातीय द्रव्य (दूषित मल) की अधिकता हो जाती है और वे इस रोग  के शिकार हो जाते हैं। यह रोग गरम जलवायु वाले प्रदेशों के लोगों को ज्यादातर होता है।

फाइलेरिया रोग के लक्षण-

•फाइलेरिया रोग में रोगी को दौरे पड़ते हैं।
•फाइलेरिया रोग से पीड़ित रोगी को रोग के दौरान हर समय 105 डिग्री तक बुखार रहता है।
•फाइलेरिया रोग से पीडित रोगी के अण्डकोषों तथा गुर्दे पर इस रोग का बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है।
•फाइलेरिया रोग से पीड़ित रोगी के अण्डकोषों में सूजन हो जाती है तथा उनमें दर्द होने लगता है।
फाइलेरिया रोग का प्राकृतिक चिकित्सा से उपचार-

           फाइलेरिया रोग से पीड़ित रोगी को सबसे पहले कुछ दिनों तक सुबह-शाम एनिमा लेकर उपवास रखना चाहिए। फिर इसके एक सप्ताह के बाद रोगी को रसाहार पदार्थों का सेवन करना चाहिए। इसके बाद डेढ़ महीने तक रोगी को कच्ची तथा पकाई हुई सब्जियां, दलिया और चोकरयुक्त आटे की रोटी का सेवन करना चाहिए। इस प्रकार से उपचार करने से फाइलेरिया रोग कुछ ही दिनों के अन्दर ठीक हो जाता है।

सूखा रोग (रिकेटस)



         सूखा रोग (रिकेटस) अधिकतर गरीब व्यक्तियों को होता है तथा इस रोग से ज्यादातर छोटे बच्चे ग्रस्त होते हैं। इस रोग को कुपोषण जन्य रोग भी कहते हैं।
सूखा रोग होने का लक्षण:-
      जब किसी छोटे बच्चे को सूखा रोग (रिकेट्स) हो जाता है तो उसमें चिड़चिडापन, मांसपेशियां ठंडी होना, बेचैनी, फीकापन लगना, सिर से अधिक पसीना निकलना, दस्त, पेचिश तथा हडि्डयां कमजोर होना आदि लक्षण पैदा हो जाते हैं। जब सूखा रोग से पीड़ित रोगी की रीढ़ की हडि्डयां कमजोर हो जाती हैं तो उसकी छाती में भी विकार हो जाते हैं, जिसके कारण रोगी बच्चे को चलने-फिरने तथा उठने-बैठने में परेशानी होने लगती है।
सूखा रोग होने का कारण:-
          सूखा रोग बच्चों के शरीर में विटामिन `डी´ की कमी हो जाने के कारण होता है। विटामिन `डी´ के द्वारा ही शरीर में कैल्शियम तथा फास्फोरस की  पर्याप्त मात्रा बनी रहती है। कैल्शियम और फास्फोरस की कमी हो जाने के कारण शरीर की हडि्डयों को पोषण नहीं मिलता है जिसके कारण यह रोग बच्चे को हो जाता है।
सूखा रोग होने पर प्राकृतिक चिकित्सा से उपचार:-
•सूखा रोग से अपने बच्चे को बचाने के लिए छोटे बच्चे जो कि 1 वर्ष से कम के होते हैं उन्हें कम से कम 1 वर्ष तक मां का दूध पिलाना चाहिए। उसके बाद बच्चे को गाय या बकरी का दूध पिलाना चाहिए।
•जो स्त्री बच्चे को दूध पिलाती है उसे कैल्शियम तथा विटामिन `डी´ की मात्रा वाले पदार्थों का सेवन अधिक करना चाहिए ताकि उसके दूध में कैल्शियम तथा विटामिन `डी´ की भरपूर मात्रा बन सके।
•यदि किसी बच्चे को यह रोग हो गया हो तो उस बच्चे को दूध में तिल मिलाकर पिलाना चाहिए। इससे सूखा रोग (रिकेटस) ठीक हो जाता है।
•बच्चे को प्रतिदिन वायुस्नान तथा धूपस्नान करना चाहिए ताकि उसका यह रोग ठीक हो सके।
•बच्चे की रीढ़ की हड्डी पर प्रतिदिन तेल की मालिश करनी चाहिए तथा उसके पेड़ू पर गीली मिट्टी की पट्टी कुछ समय के लिए करनी चाहिए। इस प्रकार से प्राकृतिक चिकित्सा से उपचार करने से सूखा रोग (रिकेटस) जल्दी ठीक हो जाता है।

Tuesday, 23 September 2014

कलौंजी/ Nigella

                                                  

कलौंजी रनुनकुलेसी कुल का झाड़ीय पौधा है, जिसका वानस्पतिक नाम “निजेला सेटाइवा” है जो लैटिन शब्द नीजर (यानी काला) से बना है, यह भारत सहित दक्षिण पश्चिमी एशियाई, भूमध्य सागर के पूर्वी तटीय देशों और उत्तरी अफ्रीकाई देशों में उगने वाला वार्षिक पौधा है जो 20-30 सें. मी. लंबा होता है। इसके लंबी पतली-पतली विभाजित पत्तियां होती हैं और 5-10 कोमल सफेद या हल्की नीली पंखुड़ियों व लंबे डंठल वाला फूल होता है। इसका फल बड़ा व गेंद के आकार का होता है जिसमें काले रंग के, लगभग तिकोने आकार के, 3 मि.मी. तक लंबे, खुरदरी सतह वाले बीजों से भरे 3-7 प्रकोष्ठ होते हैं। इसका प्रयोग औषधि, सौन्दर्य प्रसाधन, मसाले तथा खुशबू के लिए पकवानों में किया जाता है।
कलौंजी में पोषक तत्वों का अंबार लगा है। इसमें 35% कार्बोहाइड्रेट, 21% प्रोटीन और 35-38% वसा होते है। इसमें 100 ज्यादा महत्वपूर्ण पोषक तत्व होते हैं। इसमें आवश्यक वसीय अम्ल 58% ओमेगा-6 (लिनोलिक अम्ल), 0.2% ओमेगा-3 (एल्फा- लिनोलेनिक अम्ल) और 24% ओमेगा-9 (मूफा) होते हैं। इसमें 1.5% जादुई उड़नशील तेल होते है जिनमें मुख्य निजेलोन, थाइमोक्विनोन, साइमीन, कार्बोनी, लिमोनीन आदि हैं। निजेलोन में एन्टी-हिस्टेमीन गुण हैं, यह श्वास नली की मांस पेशियों को ढीला करती है, प्रतिरक्षा प्रणाली मजबूत करती है और खांसी, दमा, ब्रोंकाइटिस आदि को ठीक करती है।
थाइमोक्विनोन बढ़िया एंटी-आक्सीडेंट है, कैंसर रोधी, कीटाणु रोधी, फंगस रोधी है, यकृत का रक्षक है और असंतुलित प्रतिरक्षा प्रणाली को दुरूस्त करता है। तकनीकी भाषा में कहें तो इसका असर इम्यूनोमोड्यूलेट्री है। कलौंजी में केरोटीन, विटामिन ए, बी-1, बी-2, नायसिन व सी और केल्शियम, पोटेशियम, लोहा, मेग्नीशियम, सेलेनियम व जिंक आदि खनिज होते हैं। कलौंजी में 15 अमीनो अम्ल होते हैं जिनमें 8 आवश्यक अमाइनो एसिड हैं। ये प्रोटीन के घटक होते हैँ और प्रोटीन का निर्माण करते हैं। ये कोशिकाओं का निर्माण व मरम्मत करते हैं। शरीर में कुल 20 अमाइनो एसिड होते हैं जिनमें से आवश्यक 9 शरीर में नहीं बन सकते अतः हमें इनको भोजन द्वारा ही ग्रहण करना होता है। अमाइनो एसिड्स मांस पेशियों, मस्तिष्क और केंन्द्रीय तंत्रिका तंत्र के लिए ऊर्जा का स्रोत हैं, एंटीबॉडीज का निर्माण कर रक्षा प्रणाली को पुख्ता करते है और कार्बनिक अम्लों व शर्करा के चयापचय में सहायक होते हैं।


* कलौंजी एक बेहद उपयोगी मसाला है। इसका प्रयोग विभिन्न व्यंजनों जैसे दालों, सब्जियों, नान, ब्रेड, केक और आचार आदि में किया जाता है। कलौंजी की सब्जी भी बनाई जाती है।
* कलौंजी में एंटी-आक्सीडेंट भी मौजूद होता है जो कैंसर जैसी बीमारी से बचाता है।
* आयुर्वेद कहता है कि इसके बीजों की ताकत सात साल तक नष्ट नहीं होती.
* अपच या पेट दर्द में आप कलौंजी का काढा बनाइये फिर उसमे काला नमक मिलाकर सुबह शाम पीजिये.दो दिन में ही आराम देखिये.
* कैंसर के उपचार में कलौजी के तेल की आधी बड़ी चम्मच को एक ग्लास अंगूर के रस में मिलाकर दिन में तीन बार लें। लहसुन भी खुब खाएं।
* हृदय रोग, ब्लड प्रेशर और हृदय की धमनियों का अवरोध के लिए जब भी कोई गर्म पेय लें, उसमें एक छोटी चम्मच कलौंजी का तेल मिला कर लें.
* सफेद दाग और लेप्रोसीः- 15 दिन तक रोज पहले सेब का सिरका मलें, फिर कलौंजी का तेल मलें।
* एक चाय की प्याली में एक बड़ी चम्मच कलौंजी का तेल डाल कर लेने से मन शांत हो जाता है और तनाव के सारे लक्षण ठीक हो जाते हैं।
* कलौंजी के तेल को हल्का गर्म करके जहां दर्द हो वहां मालिश करें और एक बड़ी चम्मच तेल दिन में तीन बार लें। 15 दिन में बहुत आराम मिलेगा।
* एक बड़ी चम्मच कलौंजी के तेल को एक बड़ी चम्मच शहद के साथ रोज सुबह लें, आप तंदुरूस्त रहेंगे और कभी बीमार नहीं होंगे; स्वस्थ और निरोग रहेंगे .
* याददाश्त बढाने के लिए और मानसिक चेतना के लिए एक छोटी चम्मच कलौंजी का तेल 100 ग्राम उबले हुए पुदीने के साथ सेवन करें।
* पथरी हो तो कलौंजी को पीस कर पानी में मिलाइए फिर उसमे शहद मिलाकर पीजिये ,१०-११ दिन प्रयोग करके टेस्ट करा लीजिये.कम न हुई हो तो फिर १०-११ दिन पीजिये.
* कलौंजी की राख को तेल में मिलाकर गंजे अपने सर पर मालिश करें कुछ दिनों में नए बाल पैदा होने लगेंगे.इस प्रयोग में धैर्य महत्वपूर्ण है.
* किसी को बार-बार हिचकी आ रही हो तो कलौंजी के चुटकी भर पावडर को ज़रा से शहद में मिलकर चटा दीजिये.
* गैस/पेट फूलने की समस्या --50 ग्राम जीरा, 25 ग्राम अजवायन, 15 ग्राम कलौंजी अलग-अलग भून कर पीस लें और उन्हें एक साथ मिला दें। अब 1 से 2 चम्मच मीठा सोडा, 1 चम्मच सेंधा नमक तथा 2 ग्राम हींग शुद्ध घी में पका कर पीस लें। सबका मिश्रण तैयार कर लें। गुनगुने पानी की सहायता से 1 या आधा चम्मच खाएं।

                                                    
जेफरसन फिलाडेल्फिया स्थित किमेल कैंसर संस्थान के शोधकर्ताओं ने चूहों पर प्रयोग कर निष्कर्ष निकाला है कि कलौंजी में विद्यमान थाइमोक्विनोन अग्नाशय कैंसर की कोशिकाओं के विकास को बाधित करता है और उन्हें नष्ट करता है। शोध की आरंभिक अवस्था में ही शोधकर्ता मानते है कि शल्यक्रिया या विकिरण चिकित्सा करवा चुके कैंसर के रोगियों में पुनः कैंसर फैलने से बचने के लिए कलौंजी का उपयोग महत्वपूर्ण होगा। थाइमोक्विनोन इंटरफेरोन की संख्या में वृध्दि करता है, कोशिकाओं को नष्ट करने वाले विषाणुओं से स्वस्थ कोशिकाओं की रक्षा करता है, कैंसर कोशिकाओं का सफाया करता है और एंटी-बॉडीज का निर्माण करने वाले बी कोशिकाओं की संख्या बढ़ाता है।
                                                        
कलौंजी का सबसे ज्यादा कीटाणुरोधी प्रभाव सालमोनेला टाइफी, स्यूडोमोनास एरूजिनोसा, स्टेफाइलोकोकस ऑरियस, एस. पाइरोजन, एस. विरिडेन्स, वाइब्रियो कोलेराइ, शिगेला, ई. कोलाई आदि कीटाणुओं पर होती है। यह ग्राम-नेगेटिव और ग्राम-पोजिटिव दोनों ही तरह के कीटाणुओं पर वार करती है। विभिन्न प्रयोगशालाओं में इसकी कीटाणुरोधी क्षमता ऐंपिसिलिन के बराबर आंकी गई। यह फंगस रोधी भी होती है।
                                                           
कलौंजी में मुख्य तत्व थाइमोक्विनोन होता है। विभिन्न भेषज प्रयोगशालाओं ने चूहों पर प्रयोग करके यह निष्कर्ष निकाला है कि थाइमोक्विनोन टर्ट-ब्यूटाइल हाइड्रोपरोक्साइड के दुष्प्रभावों से यकृत की कोशिकाओं की रक्षा करता है और यकृत में एस.जी.ओ.टी व एस.जी.पी.टी. के स्राव को कम करता है।

कई शोधकर्ताओं ने वर्षों की शोध के बाद यह निष्कर्ष निकाला है कि कलौंजी में उपस्थित उड़नशील तेल रक्त में शर्करा की मात्रा कम करते हैं।

कलौंजी दमा, अस्थिसंधि शोथ आदि रोगों में शोथ (इन्फ्लेमेशन) दूर करती है। कलौंजी में थाइमोक्विनोन और निजेलोन नामक उड़नशील तेल श्वेत रक्त कणों में शोथ कारक आइकोसेनोयड्स के निर्माण में अवरोध पैदा करते हैं, सूजन कम करते हैं ओर दर्द निवारण करते हैं। कलौंजी में विद्यमान निजेलोन मास्ट कोशिकाओं में हिस्टेमीन का स्राव कम करती है, श्वास नली की मांस पेशियों को ढीला कर दमा के रोगी को राहत देती हैं।
कलौंजी में जादुई उड़नशील तेल

शोधकर्ता कलौंजी को पेट के कीड़ो (जैसे टेप कृमि आदि) के उपचार में पिपरेजीन दवा के समकक्ष मानते हैं। पेट के कीड़ो को मारने के लिए आधी छोटी चम्मच कलौंजी के तेल को एक बड़ी चम्मच सिरके के साथ दस दिन तक दिन में तीन बार पिलाते हैं। मीठे से परहेज जरूरी है।

मिस्र के वैज्ञानिक डॉ. अहमद अल-कागी ने कलौंजी पर अमेरीका जाकर बहुत शोध कार्य किया, कलौंजी के इतिहास को जानने के लिए उन्होंने इस्लाम के सारे ग्रंथों का अध्ययन किया। उन्होंने माना कि कलौंजी, जो मौत के सिवा हर मर्ज को ठीक करती है, का बीमारियों से लड़ने के लिए अल्ला ताला द्वारा हमें दी गई प्रति रक्षा प्रणाली से गहरा नाता होना चाहिये। उन्होंने एड्स के रोगियों पर इस बीज और हमारी प्रति रक्षा प्रणाली के संबन्धों का अध्ययन करने के लिए प्रयोग किये। उन्होंने सिद्ध किया कि एड्स के रोगी को नियमित कलौंजी, लहसुन और शहद के केप्स्यूल (जिन्हें वे कोनीगार कहते थे) देने से शरीर की रक्षा करने वाली टी-4 और टी-8 लिंफेटिक कोशिकाओं की संख्या में आश्चर्यजनक रूप से वृध्दि होती है। अमेरीकी संस्थाओं ने उन्हें सीमित मात्रा में यह दवा बनाने की अनुमति दे दी थी।

मिस्र, जोर्डन, जर्मनी, अमेरीका, भारत, पाकिस्तान आदि देशों के 200 से ज्यादा विश्वविद्यालयों में 1959 के बाद कलौंजी पर बहुत शोध कार्य हुआ है। मुझे पता लगा कि 1996 में अमेरीका की एफ.डी.ए. ने कैंसर के उपचार, घातक कैंसर रोधी दवाओं के दुष्प्रभावों के उपचार और शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली सुदृढ़ करने के लिए कलौंजी से बनी दवा को पेटेंट पारित किया था। कलौंजी दुग्ध वर्धक और मूत्र वर्धक होती है। कलौंजी जुकाम ठीक करती है और कलौंजी का तेल गंजापन भी दूर करता है। कलौंजी के नियमित सेवन से पागल कुत्ते के काटे जाने पर भी लाभ होता है। लकवा, माइग्रेन, खांसी, बुखार, फेशियल पाल्सी के इलाज में यह फायदा पहुंचाती हैं। दूध के साथ लेने पर यह पीलिया में लाभदायक पाई गई है। यह बवासीर, पाइल्स, मोतिया बिंद की आरंभिक अवस्था, कान के दर्द व सफेद दाग में भी फायदेमंद है। कलौंजी को विभिन्न बीमारियों में इस प्रकार प्रयोग किया जाता है।

जौ के औषधीय गुण//// Medicinal properties of barley



जौ पृथ्वी पर सबसे प्राचीन काल से कृषि किये जाने वाले अनाजों में से एक है। इसका उपयोग प्राचीन काल से धार्मिक संस्कारों में होता रहा है। संस्कृत में इसे "यव" कहते हैं। रूस, अमरीका, जर्मनी, कनाडा और भारत में यह मुख्यत: पैदा होता है।

जौ को भूनकर, पीसकर, उस आटे में थोड़ा-सा नमक और पानी मिलाने पर सत्तू बनता है। कुछ लोग सत्तू में नमक के स्थान पर गुड़ डालते हैं व सत्तू में घी और शक्कर मिलाकर भी खाया जाता है। गेंहू , जौ और चने को बराबर मात्रा में पीसकर आटा बनाने से मोटापा कम होता है और ये बहुत पौष्टिक भी होता है .राजस्थान
में भीषण गर्मी से निजात पाने के लिए सुबह सुबह जौ की राबड़ी का सेवन किया जाता है .

अगर आपको ब्लड प्रेशर की शिकायत है और आपका पारा तुरंत चढ़ता है तो फिर जौ को दवा की तरह खाएँ। हाल ही में हुए एक अध्ययन में दावा किया गया है कि जौ से ब्लड प्रेशर कंट्रोल होता है।कच्चा या पकाया हुआ जौ नहीं बल्कि पके हुए जौ का छिलका ब्लड प्रेशर से बहुत ही कारगर तरीके से लड़ता है।

यह नाइट्रिक ऑक्साइड और हाइड्रोजन सल्फाइड जैसे रसायनिक पदार्थे के निर्माण को बढ़ा देता है और उनसे खून की नसें तनाव मुक्त हो जाती हैं।
इसमें फोलिक विटामिन भी पाया जाता है। यही कारण है कि इसके सेवन से रक्तचाप मधुमेह पेट एवं मूष संबंधी बीमारी गुर्दे की पथरी याद्दाश्त की समस्या आदि से निजात दिलाता है।इसमें एंटी कोलेस्ट्रॉल तत्व भी पाया जाता है।यह उत्तर भारत के मैदानी इलाकों उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, बिहार, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर और गुजरात की एक महत्वपूर्ण रबी फसल है।

इसका उपयोग औषधि के रूप मे किया जा सकता है । जौ के निम्न औषधीय गुण है :

* कंठ माला- जौ के आटे में धनिये की हरी पत्तियों का रस मिलाकर रोगी स्थान पर लगाने से कंठ माला ठीक हो जाती है।
* मधुमेह (डायबटीज)- छिलका रहित जौ को भून पीसकर शहद व जल के साथ सत्तू बनाकर खायें अथवा दूध व घी के साथ दलिया का सेवन पथ्यपूर्वक कुछ दिनों तक लगातार करते करते रहने से मधूमेह की व्याधि से छूटकारा पाया जा सकता है।
* जलन- गर्मी के कारण शरीर में जलन हो रही हो, आग सी निकलती हो तो जौ का सत्तू खाने चाहिये। यह गर्मी को शान्त करके ठंडक पहूचाता है और शरीर को शक्ति प्रदान करता है।
* मूत्रावरोध- जौ का दलिया दूध के साथ सेवन करने से मूत्राशय सम्बन्धि अनेक विकार समाप्त हो जाते है।
* गले की सूजन- थोड़ा सा जौ कूट कर पानी में भिगो दें। कुछ समय के बाद पानी निथर जाने पर उसे गरम करके उसके कूल्ले करे। इससे शीघ्र ही गले की सूजन दूर हो जायेगी।
* ज्वर- अधपके या कच्चे जौ (खेत में पूर्णतः न पके ) को कूटकर दूध में पकाकर उसमें जौ का सत्तू मिश्री, घी शहद तथा थोड़ा सा दूघ और मिलाकर पीने से ज्वर की गर्मी शांत हो जाती है।
* मस्तिष्क का प्रहार- जौ का आटा पानी में घोलकर मस्तक पर लेप करने से मस्तिष्क की पित्त के कारण हूई पीड़ा शांत हो जाती है।
* अतिसार- जौ तथा मूग का सूप लेते रहने से आंतों की गर्मी शांत हो जाती है। यह सूप लघू, पाचक एंव संग्राही होने से उरःक्षत में होने वाले अतिसार (पतले दस्त) या राजयक्ष्मा (टी. बी.) में हितकर होता है।
* मोटापा बढ़ाने के लिये- जौ को पानी भीगोकर, कूटकर, छिलका रहित करके उसे दूध में खीर की भांति पकाकर सेवन करने से शरीर पर्यात हूष्ट पुष्ट और मोटा हो जाता है।
* धातु-पुष्टिकर योग- छिलके रहित जौ, गेहू और उड़द समान मात्रा में लेकर महीन पीस लें। इस चूर्ण में चार गुना गाय का दूध लेकर उसमे इस लुगदी को डालकर धीमी अग्नि पर पकायें। गाढ़ा हो जाने पर देशी घी डालकर भून लें। तत्पश्चात् चीनी मिलाकर लड्डू या चीनी की चाशनी मिलाकर पाक जमा लें। मात्रा 10 से 50 ग्राम। यह पाक चीनी व पीतल-चूर्ण मिलाकर गरम गाय के दूध के साथ प्रातःकाल कुछ दिनों तक नियमित लेने से धातु सम्बन्धी अनेक दोष समाप्त हो जाते हैं ।
* पथरी- जौ का पानी पीने से पथरी निकल जायेगी। पथरी के रोगी जौ से बने पदार्थ लें।
* कर्ण शोध व पित्त- पित्त की सूजन अथवा कान की सूजन होने पर जौ के आटे में ईसबगोल की भूसी व सिरका मिलाकर लेप करना लाभप्रद रहता है।
* आग से जलना- तिल के तेल में जौ के दानों को भूनकर जला लें। तत्पश्चात् पीसकर जलने से उत्पन्न हुए घाव या छालों पर इसे लगायें, आराम हो जायेगा। अथवा जौ के दाने अग्नि में जलाकर पीस लें। वह भस्म तिल के तेल में मिलाकर रोगी स्थान पर लगानी चाहियें।
* जौ की राख को पानी में खूब उबालने से यवक्षार बनता है जो किडनी को ठीक कर देता है |

सहजन के फायदे/The advantages of drumstick


इस वृक्ष को विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है। यथा बंगाल में 'सजिना', महाराष्ट्र में 'शेगटा', तेलगु में 'मुनग',व हिंदी पट्टी में 'सहजन' के अलावा 'सैजन' व 'मुनग' कहा जाता है। जिसका उपयोग आयुर्वेद में बड़े पैमाने पर होता है।सहजन के तीन मुख्य प्रभेद होते हैं। कृषि विशेषज्ञों के मुताबिक पुष्प भेद से सहजन की प्रजाति पहचानी जाती है। जिसमें लाल, काले एवं श्वेत पुष्प प्रमुख है। हालांकि, श्वेत पुष्प वाली प्रजाति का ही ज्यादा उत्पादन होता है।सहजन, सुजना, सेंजन और मुनगा या मुरुंगा अत्यंत सुंदर वृक्ष तो है ही अनेक पोषक तत्त्वों से भरपूर होने के कारण उपयोगी और स्वास्थ्यवर्धक भी है। मोरिंगा ओलेफेरा वानस्पतिक नाम वाला यह पौधा लगभग १० मीटर उंचाई वाला होता है किन्तु लोग इसे डेढ़-दो मीटर की ऊँचाई से प्रतिवर्ष काट देते हैं ताकि इसके फल-फूल-पत्तियों तक हाथ आसानी से पहुँच सके। सहजन के पौधे में मार्च महीने के आरंभ में फूल लगते हैं व इसी महीने के अंत तक फल भी लग जाते हैं। इसकी कच्ची-हरी फलियाँ सर्वाधिक उपयोग में लायी जातीं हैं।आयुर्वेद में ३०० रोगों का सहजन से उपचार बताया गया है, लेकिन आधुनिक विज्ञान ने इसके पोषक तत्वों की मात्रा खोजकर संसार को चकित कर दिया है। इसकी फली, हरी पत्तियों व सूखी पत्तियों में कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, कैल्शियम, पोटेशियम, आयरन, मैग्नीशियम, विटामिन-ए, सी और बी कॉम्पलैक्स प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। एक अध्ययन के अनुसार इसमें दूध की तुलना में ४ गुना कैलशियम और दुगना प्रोटीन पाया जाता है। क्षेत्रीय खाद्य अनुसंधान एवं विश्लेषण केंद्र लखनऊ द्वारा सहजन की फली एवं पत्तियों पर किए गए नए शोध से पता चला है कि प्राकृतिक गुणों से भरपूर सहजन इतने औषधीय गुणों से भरपूर है कि उसकी फली के अचार और चटनी कई बीमारियों से मुक्ति दिलाने में सहायक हैं। कुछ विशेषज्ञों के अनुसार इसे दुनिया का सबसे उपयोगी पौधा कहा जा सकता है। यह न सिर्फ कम पानी अवशोषित करता है बल्कि इसके तनों, फूलों और पत्तियों में खाद्य तेल, जमीन की उर्वरा शक्ति बढ़ाने वाली खाद और पोषक आहार पाए जाते हैं।इसके फूल, फली व पत्तों में इतने पोषक तत्त्व हैं कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के मार्गदर्शन में दक्षिण अफ्रीका के कई देशों में कुपोषण पीडित लोगों के आहार के रूप में सहजन का प्रयोग करने की सलाह दी गई है। एक से तीन साल के बच्चों और गर्भवती व प्रसूता महिलाओं व वृद्धों के शारीरिक पोषण के लिए यह वरदान माना गया है। लोक में भी कैन्सर व पेट आदि शरीर के आभ्यान्तर में उत्पन्न गांठ, फोड़ा आदि में सहजन की जड़ का अजवाइन, हींग और सौंठ के साथ काढ़ा बनाकर पीने का प्रचलन है। यह भी पाया गया है कि यह काढ़ा साइटिका (पैरों में दर्द), जोड़ो में दर्द, लकवा, दमा, सूजन, पथरी आदि में लाभकारी है। सहजन के गोंद को जोड़ों के दर्द और शहद को दमा आदि रोगों में लाभदायक माना जाता है। आज भी ग्रामीणों की ऐसी मान्यता है कि सहजन के प्रयोग से विषाणु जनित रोग चेचक के होने का खतरा टल जाता है।  दुनिया में करोड़ों लोग भूजल का प्रयोग पेयजल के रूप में करते हैं। इसमें कई तरह के बैक्टीरिया होते हैं जिसके कारण लोगों को तमाम तरह की जलजनित बीमारियाँ होने की संभावना बनी रहती है। इन बीमारियों के सबसे ज्यादा शिकार कम उम्र के बच्चे होते हैं। ऐसे में सहजन के बीज से पानी को काफी हद तक शुद्ध करके पेयजल के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। क्लीयरिंग हाउस के शोधकर्ता और करंट प्रोटोकाल्स के लेखक माइकल ली का कहना है कि सहजन के पेड़ से पानी को साफ करके दुनिया मे जलजनित बीमारियों से होने वाली मौतों पर काफी हद तक अंकुश लगाया जा सकता है।सहजन की पत्ती इसके बीज से बिना लागत के पेय जल को साफ किया जा सकता है। इसके बीज को चूर्ण के रूप में पीस कर पानी में मिलाया जाता है। पानी में घुल कर यह एक प्रभावी नेचुरल क्लैरीफिकेशन एजेंट बन जाता है। यह न सिर्फ पानी को बैक्टीरिया रहित बनाता है बल्कि यह पानी की सांद्रता को भी बढ़ाता है जिससे जीवविज्ञान के नजरिए से मानवीय उपभोग के लिए अधिक योग्य बन जाता है। भारत जैसे देश में इस तकनीक की उपयोगिता असाधारण हो सकती है, जहाँ आम तौर पर ९५ फीसदी आबादी बिना साफ किए हुए पानी का सेवन करती है। दो दशक पूर्व तक सहजन का पौधा प्राय: हर गांव में आसानी से मिल जाता था। लेकिन आज इसके संरक्षण की आवश्यकता का अनुभव किया जा रहा है। इस पौधे के विरल होते जाने का कारण यह है कि इस पर भुली नामक एक कीट रहता है, जिससे अत्यंत ही खतरनाक त्वचा एलर्जी होती है। इसी भयवश ग्रामीण इस पौधे को नष्ट कर देते हैं। एक ओर जहाँ विशेषज्ञ इसे भुली से मुक्ति के उपाय खोजने में लगे हैं वहीं दूसरी ओर सहजन का साल में दो बार फलने वाला वार्षिक प्रभेद तैयार कर लिया गया है, जिससे ज्यादा फल की प्राप्ति होती है।

निम्नलिखित फायदे......
* इसकी फली, हरी पत्तियों व सूखी पत्तियों में कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, कैल्शियम, पोटेशियम, आयरन, मैग्नीशियम, विटामिन-ए, सी और बी कॉम्पलैक्स प्रचुर मात्रा में पाया जाता है।
* इसके फूल उदर रोगों व कफ रोगों में, इसकी फली वात व उदरशूल में, पत्ती नेत्ररोग, मोच, शियाटिका,गठिया आदि में उपयोगी है|
* जड़ दमा, जलोधर, पथरी,प्लीहा रोग आदि के लिए उपयोगी है तथा छाल का उपयोग शियाटिका ,गठिया, यकृत आदि रोगों के लिए श्रेयष्कर है|
* सहजन के विभिन्न अंगों के रस को मधुर,वातघ्न,रुचिकारक, वेदनाशक,पाचक आदि गुणों के रूप में जाना जाता है|
* सहजन के छाल में शहद मिलाकर पीने से वात, व कफ रोग शांत हो जाते है|
* इसकी पत्ती का काढ़ा बनाकर पीने से गठिया,शियाटिका ,पक्षाघात,वायु विकार में शीघ्र लाभ पहुंचता है|
* शियाटिका के तीव्र वेग में इसकी जड़ का काढ़ा तीव्र गति से चमत्कारी प्रभाव दिखता है,
* मोच इत्यादि आने पर सहजन की पत्ती की लुगदी बनाकर सरसों तेल डालकर आंच पर पकाएं तथा मोच के स्थान पर लगाने से शीघ्र ही लाभ मिलने लगता है |
* सहजन को अस्सी प्रकार के दर्द व बहत्तर प्रकार के वायु विकारों का शमन करने वाला बताया गया है|
* इसकी सब्जी खाने से पुराने गठिया , जोड़ों के दर्द, वायु संचय , वात रोगों में लाभ होता है.
* सहजन के ताज़े पत्तों का रस कान में डालने से दर्द ठीक हो जाता है.
* सहजन की सब्जी खाने से गुर्दे और मूत्राशय की पथरी कटकर निकल जाती है.
* इसकी जड़ की छाल का काढा सेंधा नमक और हिंग डालकर पिने से पित्ताशय की पथरी में लाभ होता है.
* इसके पत्तों का रस बच्चों के पेट के किडें निकालता है और उलटी दस्त भी रोकता है.
* इसका रस सुबह शाम पीने से उच्च रक्तचाप में लाभ होता है.
* इसकी पत्तियों के रस के सेवन से मोटापा धीरे धीरे कम होने लगता है.
* इसकी छाल के काढ़े से कुल्ला करने पर दांतों के कीड़ें नष्ट होते है और दर्द में आराम मिलता है.
* इसके कोमल पत्तों का साग खाने से कब्ज दूर होती है.
* इसकी जड़ का काढे को सेंधा नमक और हिंग के साथ पिने से मिर्गी के दौरों में लाभ होता है.
* इसकी पत्तियों को पीसकर लगाने से घाव और सुजन ठीक होते है.
* सर दर्द में इसके पत्तों को पीसकर गर्म कर सिर में लेप लगाए या इसके बीज घीसकर सूंघे.
* इसमें दूध की तुलना में ४ गुना कैलशियम और दुगना प्रोटीन पाया जाता है।
* सहजन के बीज से पानी को काफी हद तक शुद्ध करके पेयजल के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। इसके बीज को चूर्ण के रूप में पीस कर पानी में मिलाया जाता है। पानी में घुल कर यह एक प्रभावी नेचुरल क्लैरीफिकेशन एजेंट बन जाता है। यह न सिर्फ पानी को बैक्टीरिया रहित बनाता है बल्कि यह पानी की सांद्रता को भी बढ़ाता है जिससे जीवविज्ञान के नजरिए से मानवीय उपभोग के लिए अधिक योग्य बन जाता है।
* कैन्सर व पेट आदि शरीर के आभ्यान्तर में उत्पन्न गांठ, फोड़ा आदि में सहजन की जड़ का अजवाइन, हींग और सौंठ के साथ काढ़ा बनाकर पीने का प्रचलन है। यह भी पाया गया है कि यह काढ़ा साइटिका (पैरों में दर्द), जोड़ो में दर्द, लकवा, दमा, सूजन, पथरी आदि में लाभकारी है।
* सहजन के गोंद को जोड़ों के दर्द और शहद को दमा आदि रोगों में लाभदायक माना जाता है।
* आज भी ग्रामीणों की ऐसी मान्यता है कि सहजन के प्रयोग से विषाणु जनित रोग चेचक के होने का खतरा टल जाता है।
* सहजन में हाई मात्रा में ओलिक एसिड होता है जो कि एक प्रकार का मोनोसैच्युरेटेड फैट है और यह शरीर के लिये अति आवश्यक है।
* सहजन में विटामिन सी की मात्रा बहुत होती है। विटामिन सी शीर के कई रोगों से लड़ता है, खासतौर पर सर्दी जुखाम से। अगर सर्दी की वजह से नाक कान बंद हो चुके हैं तो, आप सहजन को पानी में उबाल कर उस पानी का भाप लें। इससे जकड़न कम होगी।
* इसमें कैल्शियम की मात्रा अधिक होती है जिससे हड्डियां मजबूत बनती है। इसके अलावा इसमें आइरन, मैग्नीशियम और सीलियम होता है।
* इसका जूस गर्भवती को देने की सलाह दी जाती है। इससे डिलवरी में होने वाली समस्या से राहत मिलती है और डिलवरी के बाद भी मां को तकलीफ कम होती है।
* सहजन में विटामिन ए होता है जो कि पुराने समय से ही सौंदर्य के लिये प्रयोग किया आता जा रहा है। इस हरी सब्जी को अक्सर खाने से बुढापा दूर रहता है। इससे आंखों की रौशनी भी अच्छी होती है।
* आप सहजन को सूप के रूप में पी सकते हैं, इससे शरीर का रक्त साफ होता है। पिंपल जैसी समस्याएं तभी सही होंगी जब खून अंदर से साफ होगा।
* सहजन के फूल उदर रोगों व कफ रोगों में इसकी फली वात व उदरशूल में पत्ती नेत्ररोग, मोच आदि में उपयोगी है।
* सहजन की जड़ दमा, जलोधर, पथरी,प्लीहा रोग आदि के लिए उपयोगी है तथा छाल का उपयोग शियाटिका गठियाए,यकृत आदि रोगों के लिए श्रेयष्कर है।
* सहजन के विभिन्न अंगों के रस को मधुर,वातघ्न,रुचिकारक, वेदनाशक,पाचक आदि गुणों के रूप में जाना जाता है
* सहजन के छाल में शहद मिलाकर पीने से वातए व कफ रोग शांत हो जाते है, ]
* इसकी पत्ती का काढ़ा बनाकर पीने से गठिया, शियाटिका ,पक्षाघात,वायु विकार में शीघ्र लाभ पहुंचता है, शियाटिका के तीव्र वेग में इसकी जड़ का काढ़ा तीव्र गति से चमत्कारी प्रभाव दिखता है.
* सहजन की पत्ती की लुगदी बनाकर सरसों तेल डालकर आंच पर पकाएं तथा मोच के स्थान पर लगाने से शीघ्र ही लाभ मिलने लगता है।
* सहजन को अस्सी प्रकार के दर्द व बहत्तर प्रकार के वायु विकारों का शमन करने वाला बताया गया है।
* सहजन की सब्जी खाने से पुराने गठिया ए जोड़ों के दर्दए वायु संचय , वात रोगों में लाभ होता है।
* सहजन के ताज़े पत्तों का रस कान में डालने से दर्द ठीक हो जाता है।
* इसकी  सब्जी खाने से गुर्दे और मूत्राशय की पथरी कटकर निकल जाती है।
* सहजन की जड़ की छाल का काढा सेंधा नमक और हिंग डालकर पीने से पित्ताशय की पथरी में लाभ होता है।
* सहजन के पत्तों का रस बच्चों के पेट के कीड़े निकालता है और उलटी दस्त भी रोकता है।
* सहजन फली का रस सुबह शाम पीने से उच्च रक्तचाप में लाभ होता है।
* इसकी  पत्तियों के रस के सेवन से मोटापा धीरे धीरे कम होने लगता है।
* सहजन. की छाल के काढ़े से कुल्ला करने पर दांतों के कीड़ें नष्ट होते है और दर्द में आराम मिलता है।
* सहजन के कोमल पत्तों का साग खाने से कब्ज दूर होती है।
* सहजन. की जड़ का काढे को सेंधा नमक और हिंग के साथ पिने से मिर्गी के दौरों में लाभ होता है।
* सहजन की पत्तियों को पीसकर लगाने से घाव और सुजन ठीक होते है।
* सहजन के पत्तों को पीसकर गर्म कर सिर में लेप लगाए या इसके बीज घीसकर सूंघे तो सर दर्द दूर हो जाता है .
* सहजन के बीज से पानी को काफी हद तक शुद्ध करके पेयजल के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।
* इसके बीज को चूर्ण के रूप में पीस कर पानी में मिलाया जाता है। पानी में घुल कर यह एक प्रभावी नेचुरल क्लैरीफिकेशन एजेंट बन जाता है।
  यह न सिर्फ पानी को बैक्टीरिया रहित बनाता है बल्कि यह पानी की सांद्रता को भी बढ़ाता है जिससे जीवविज्ञान के नजरिए से मानवीय उपभोग के लिए अधिक योग्य बन जाता है।
* सहजन के गोंद को जोड़ों के दर्द और शहद को दमा आदि रोगों में लाभदायक माना जाता है।
* सहजन में विटामिन सी की मात्रा बहुत होती है। विटामिन सी शरीर के कई रोगों से लड़ता है खासतौर पर सर्दी जुखाम से। अगर सर्दी की वजह से नाक कान बंद हो चुके हैं तोए आप सहजन को पानी में उबाल कर उस पानी का भाप लें। इससे जकड़न कम होगी।
* सहजन में कैल्शियम की मात्रा अधिक होती है जिससे हड्डियां मजबूत बनती है। इसके अलावा इसमें आयरन , मैग्नीशियम और सीलियम होता है।
* सहजन का जूस गर्भवती को देने की सलाह दी जाती है। इससे डिलवरी में होने वाली समस्या से राहत मिलती है और डिलवरी के बाद भी मां को तकलीफ कम होती है।
* सहजन में विटामिन ए होता है जो कि पुराने समय से ही सौंदर्य के लिये प्रयोग किया आता जा रहा है। इस हरी सब्जी को अक्सर खाने से बुढापा दूर रहता है। इससे आंखों की रौशनी भी अच्छी होती है।
* सहजन का सूप पीने से शरीर का रक्त साफ होता है। पिंपल जैसी समस्याएं तभी सही होंगी जब खून अंदर से साफ होगा।
* सहजन की पत्ती को सुखाकर उसकी चटनी बनाने से उसमें आयरन, फास्फोरस, कैल्शियम प्रचूर मात्रा में पाया जाता है। उन्होंने बताया कि गर्भवती महिलाएँ और बुजुर्ग भी इस चटनी, अचार का प्रयोग कर सकते हैं और कई बीमारियों जैसे रक्त अल्पता तथा आँख की बीमारियों से मुक्ति पा सकते हैं।
* सहजन या सुरजने का समूचा पेड़ ही चिकित्सा के काम आता है। इसे जादू का पेड़ भी कहा जाता है। त्वचा रोग के इलाज में इसका विशेष स्थान है। सहजन के बीज धूप से होने वाले दुष्प्रभावों से रक्षा करते हैं। अक्सर इन्हें पीसकर डे केअर क्रीम में इस्तेमाल किया जाता है। बीजों का दरदरा पेस्ट चेहरे की मृत त्वचा को हटाने के लिए स्क्रब के तौर पर भी इस्तेमाल किया जाता है। फेस मास्क बनाने के लिए सहजन के बीजों के अलावा कुछ और मसाले भी मिलाना पड़ते हैं।
* सहजन के बीजों का तेल सूखी त्वचा के इलाज के लिए इस्तेमाल किया जाता है। यह एक ताकतवर मॉश्‍चराइजर है। इसके पेस्ट से खुरदुरी और एलर्जिक त्वचा का बेहतर इलाज किया जा सकता है। सहजन के पेड़ की छाल गोखरू, कील और बिवाइयों के इलाज की अक्सीर दवा मानी जाती है।
* सहजन के बीजों का तेल शिशुओं की मालिश के लिए प्रयोग किया जाता है। त्वचा साफ करने के लिए सहजन के बीजों का सत्व कॉस्मेटिक उद्योगों में बेहद लोकप्रिय है। सत्व के जरिए त्वचा की गहराई में छिपे विषैले तत्व बाहर निकाले जा सकते हैं।
* सहजन के बीजों का पेस्ट त्वचा के रंग और टोन को साफ रखने में मदद करता है।मृत त्वचा के पुनर्जीवन के लिए इससे बेहतर कोई रसायन नहीं है। धूम्रपान के धुएँ और भारी धातुओं के विषैले प्रभावों को दूर करने में सहजन के बीजों के सत्व का प्रयोग सफल साबित हुआ है।

तुलसी/Basil



यदि सुबह, दोपहर और शाम को तुलसी का सेवन किया जाए तो उससे शरीर इतना शुद्ध हो जाता है, जितना अनेक चांद्रायण व्रत के बाद भी नहीं होता।
तुलसी की गंध जितनी दूर तक जाती है, वहां तक का वातावरण और निवास करने वाले जीव निरोगी और पवित्र हो जाते हैं।
तुलसी में गजब की रोगनाशक शक्ति है। विशेषकर सर्दी, खांसी व बुखार में यह अचूक दवा का काम करती है। इसीलिए भारतीय आयुर्वेद के सबसे प्रमुख ग्रंथ चरक संहिता में इसे विशेष महत्व दिया गया है।

                                        हिक्काज विश्वास पाश्र्वमूल विनाशिन:।
                                        पितकृतत्कफवातघ्नसुरसा: पूर्ति: गन्धहा।।

*सुरसा यानी तुलसी हिचकी, खांसी,जहर का प्रभाव व पसली का दर्द मिटाने वाली है। इससे पित्त की वृद्धि और दूषित वायु खत्म होती है। यह दुर्गंध भी दूर करती है।

                                    तुलसी कटु कातिक्ता हद्योषणा दाहिपित्तकृत।
                                      दीपना कृष्टकृच्छ् स्त्रपाश्र्व रूककफवातजित।।

*तुलसी कड़वे व तीखे स्वाद वाली दिल के लिए लाभकारी, त्वचा रोगों में फायदेमंद, पाचन शक्ति बढ़ाने वाली और मूत्र से संबंधित बीमारियों को मिटाने वाली है। यह कफ और वात से संबंधित बीमारियों को भी ठीक करती है।

                                     तुलसी तुरवातिक्ता तीक्ष्णोष्णा कटुपाकिनी।
                                      रुक्षा हृद्या लघु: कटुचौहिषिताग्रि वद्र्धिनी।।

                                    जयेद वात कफ श्वासा कारुहिध्मा बमिकृमनीन।
                                    दौरगन्ध्य पार्वरूक कुष्ट विषकृच्छन स्त्रादृग्गद:।।

*तुलसी कड़वे व तीखे स्वाद वाली कफ, खांसी, हिचकी, उल्टी, कृमि, दुर्गंध, हर तरह के दर्द, कोढ़ और आंखों की बीमारी में लाभकारी है।
तुलसी को भगवान के प्रसाद में रखकर ग्रहण करने की भी परंपरा है, ताकि यह अपने प्राकृतिक स्वरूप में ही शरीर के अंदर पहुंचे और शरीर में किसी तरह की आंतरिक समस्या पैदा हो रही हो, तो उसे खत्म कर दे।
शरीर में किसी भी तरह के दूषित तत्व के एकत्र हो जाने पर तुलसी सबसे बेहतरीन दवा के रूप में काम करती है। सबसे बड़ा फायदा ये कि इसे खाने से कोई रिएक्शन नहीं होता है।
तुलसी की मुख्यत: दो प्रजातियां अधिकांश घरों में लगाई जाती हैं। इन्हें  रामा और श्यामा कहा जाता है।
*रामा के पत्तों का रंग हल्का होता है। इसलिए इसे गौरी कहा जाता है।
*श्यामा तुलसी के पत्तों का रंग काला होता है। इसमें कफनाशक गुण होते हैं। यही कारण है कि इसे दवा के रूप में अधिक उपयोग में लाया जाता है।
*तुलसी की एक जाति वन तुलसी भी होती है। इसमें जबरदस्त जहरनाशक प्रभाव पाया जाता है, लेकिन इसे घरों में बहुत कम लगाया जाता है। आंखों के रोग, कोढ़ और प्रसव में परेशानी जैसी समस्याओं में यह रामबाण दवा है।
*एक अन्य जाति मरूवक है, जो कम ही पाई जाती है। राजमार्तण्ड ग्रंथ के अनुसार किसी भी तरह का घाव हो जाने पर इसका रस बेहतरीन दवा की तरह काम करता है।
*तुलसी की एक और जाति जो बहुत उपयोगी है, वह है बर्बरी तुलसी। इसके बीजों का प्रयोग वीर्य को गाढ़ा करने वाली दवा के रूप में किया जाता है।
मच्छरों के काटने से होने वाली बीमारी, जैसे मलेरिया में तुलसी एक कारगर औषधि है। तुलसी और काली मिर्च का काढ़ा बनाकर पीने से मलेरिया जल्दी ठीक हो जाता है। जुकाम के कारण आने वाले बुखार में भी तुलसी के पत्तों के रस का सेवन करना चाहिए।
इससे बुखार में आराम मिलता है। शरीर टूट रहा हो या जब लग रहा हो कि बुखार आने वाला है तो पुदीने का रस और तुलसी का रस बराबर मात्रा में मिलाकर थोड़ा गुड़ डालकर लें, आराम मिलेगा।
*साधारण खांसी में तुलसी के पत्तों और अडूसा के पत्तों को बराबर मात्रा में मिलाकर लेने से बहुत जल्दी लाभ होता है।
*तुलसी व अदरक का रस बराबर मात्रा में मिलाकर लेने से खांसी में बहुत जल्दी आराम मिलता है।
*तुलसी के रस में मुलहटी व थोड़ा-सा शहद मिलाकर लेने से खांसी की परेशानी दूर हो जाती है।
*चार-पांच लौंग भूनकर तुलसी के पत्तों के रस में मिलाकर लेने से खांसी में तुरंत लाभ होता है।
*शिवलिंगी के बीजों को तुलसी और गुड़ के साथ पीसकर नि:संतान महिला को खिलाया जाए तो जल्द ही संतान सुख की प्राप्ति होती है।
*किडनी की पथरी में तुलसी की पत्तियों को उबालकर बनाया गया काढ़ा शहद के साथ नियमित 6 माह सेवन करने से पथरी मूत्र मार्ग से बाहर निकल जाती है।
*फ्लू रोग में तुलसी के पत्तों का काढ़ा सेंधा नमक मिलाकर पीने से लाभ होता है।
*तुलसी के रस में थाइमोल तत्व पाया जाता है। इससे त्वचा के रोगों में लाभ होता है।
*तुलसी के पत्तों को त्वचा पर रगड़ दिया जाए तो त्वचा पर किसी भी तरह के संक्रमण में आराम मिलता है।
*तुलसी थकान मिटाने वाली औषधि है। बहुत थकान होने पर तुलसी की पत्तियों और मंजरी के सेवन से थकान दूर हो जाती है।
*प्रतिदिन 4 से 5 बार तुलसी की 6 से 7 पत्तियों को चबाने से कुछ ही दिनों में माइग्रेन की समस्या में आराम मिलने लगता है।
*तुलसी के पत्तों को तांबे के पानी से भरे बर्तन में डालें। कम से कम एक-सवा घंटे पत्तों को पानी में रखा रहने दें। यह पानी पीने से कई बीमारियां पास नहीं आतीं।
*दिल की बीमारी में यह अमृत है। यह खून में कोलेस्ट्रॉल को नियंत्रित करती है। दिल की बीमारी से ग्रस्त लोगों को तुलसी के रस का सेवन नियमित रूप से करना चाहिए।

गर्भ नहीं ठहरता हो तो सौंफ को खाएं इस तरह

गर्भधारण करने के बाद महिला को सौंफ और गुलकन्द मिलाकर पानी के साथ पीसकर हर रोज नियमित रूप से पिलाने से गर्भपात की आशंका समाप्त हो जाती ह...